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शु-द्वोपयोग अधिकार
[ ४६३ को ज्ञान समझो और ज्ञान बो ही आत्मा समझो इसमें कुछ भी संदेह नहीं है । इस हेतु से ज्ञान स्वपरप्रकाशी है और दर्शन भी स्वपरप्रकाशी है। ऐसा समझना चाहिए।
यहां तक आचार्य श्री कुदकुद देव ने व्यवहारन य स ज्ञान, दर्शन और आन्मा को परप्रकाशी और निश्चयनय ये ज्ञान, दर्शन और आत्मा इन तीनों को स्वप्रकाशी कहकर पुनः इन तीनों को ही कंथचित् एक दूसरे में अभिन्न मिग करते हुए स्वपर. प्रकाशी सिद्ध किया है
अब इस ज्ञान-दर्शन के विषय में अन्य ग्रंथों की चर्चा देखिये
"अन्तर्मुख नि:प्रका को दर्शन और बहिब चित्प्रकाश को झान माना है .'' बात यह है कि मामान्य को छोड़कर केवल विशेा अन्य ना विशेष को छोड़कर सामान्य अर्थ क्रिया करने म नमर्थ है अत. या अवस्तु है, उस कारण के बल विजय का ग्रहण करने वाला नहीं हो सकेगा और केबर सामान्य का ग्रहण करने वाला दर्शन भी प्रमाण नहीं हो सकेगा।
"ज 'सामग्णा भावाण णेय कट्टमाया यहां पर भी सामान्य' शब्द का अर्थ आत्मा है क्योंकि आमा सम्पूर्ण बाह्य पदाथों में साधारणरूप में पाया जाना है।"
श्रीमान् भट्टाकलंक देवकृत लघीयस्त्रय की टीका में भी स्पष्टतया कहा है कि-"यहां पर सामान्य के ग्रहण को दर्शन कहा है कित सिद्धांन में स्वरूप के ग्रहण को दर्शन कहा है अतः उपर्यत. कथन में सिद्धांत के साथ विरोध क्यों नहीं होगा ?"
१. "अंतहिनियोश्विप्रकाशदर्शनज्ञानव्यपदेशभाषा: पु. १ पृ० १४६]
२. "ज सामग्णं गहणं'.............तात्मन: सकल बाद्यार्थसाधारणत्वतः सामान्यस्यपदेश भाजो ग्रहणात् ।" [ घ ० पु० पृ० ६४८ ]
___३. ननु स्वरूप ग्रहणमेव दर्शन मितिराद्धांतेन कथं न विरोधः इति चेन्न, अभिप्राय भेदान्
........ तत्त्वतस्तु स्वरूप ग्रहणमेव दर्शन के बलिनां तयोयुगपत्प्रवृत्तः । अन्यथा ज्ञानस्य सामान्य विशेषात्मकवस्तु विषयत्वाभाव प्रसंगात् । । लधीयस्त्रयं प्र० १४]