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निगममार
यदि ज्ञान परप्रकाशी है तो आत्मा से दर्शन भिन्न रहेगा, क्योंकि दर्शन परद्रव्य का जानने वाला नहीं है ऐसा तुमने कहा है ।
यदि आत्मा परप्रकाशी है तो आत्मा से दर्शन भिन्न रहेगा, क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत नहीं है, ऐसा तुमने कहा है । अर्थात् ज्ञानको परप्रकाशी और दर्शन को स्वप्रकाशी कहने से उपर्युक्त दो गाथा कथित दूषण आ जाते हैं ।
करते हैं
[ पुनः आचार्य देव स्वयं नयों की अपेक्षा से वास्तविकता को स्पष्ट ]
व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशी है, दर्शन भी वैसा है, व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशी है और भी चैना है। से ज्ञान आत्मप्रकाशी है दर्शन भी वैसा है, निश्वयनय से आत्मा स्वप्रकाशी है और दर्शन भी वैसा है। यहां पर निश्चयतय स्वाश्रित है और व्यवहार पराश्रित है, इसलिये ऐसा कहा गया है। पुनः कहते हैं
केवली भगवान आत्मस्वरूप को देखते हैं, लोकालोक को नहीं यदि कोई ऐसा कहता है ना उसके क्या दूषण होता है ? अर्थात् नयों की अपेक्षा से कोई दूषण नहीं है, अथवा आगे दो गाथाओं से दुषण दिखाते हैं
मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्य को तथा स्वको और समस्त को देखने वाले सर्वदर्शी का ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है । नाना पर्यायों से सहित पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् युगपत् अथवा स्पष्ट नहीं देखते हैं, उनके परोक्ष दर्शन होना है । अर्थात् जिनका दर्शन आत्मा को ही जानता है, परपदार्थों को नहीं, उनका दर्शन परोक्ष ही रहता है न कि प्रत्यक्ष । पुनः कहते हैं कि
"केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं किंतु आत्मा को नहीं जानते हैं, यदि ऐसा कोई कहता है तो उसके क्या दूषण होता है ?" अर्थात् नयों की अपेक्षा से कुछ भी दूषण नहीं है, अथवा आगे कही गई दो गाथाओं से दूषण दिखाते हैं ।
"ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिये आत्मा - आत्मा को जानता है यदि वह आत्मा को नहीं जाने तो वह ज्ञान आत्मा से भिन्न हो जावेगा ।" इसलिये तुम आत्मा