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"ठारणिसेज्जविहारा धम्मुवबेसो य णियदया तेसि । अरहंताएं काले मायाचारो व्व इत्थोणं ॥"
( शार्दूलविक्रीडित) देवेन्द्रासनकंपकारणमहाकवल्यबोधोवये मुक्तिश्रीललनामुखाम्बुजरबेः सद्धर्मरक्षामणेः । सर्व वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्व पुराणस्य तत् सोऽयं नन्बपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ॥२६२॥
गाथार्थ- 'अहंतदेवों के उस काल में खड़े होना, बैठना, विहार करना और धर्मोपदेश देना यह क्रिया स्वभाव से होती हैं जैसे कि स्त्रियों में मायाचार स्वभाव से होता है ।
[ अब टीकाकार मुनिराज अहंतदेव की महिमा को बतलाते हए कलशकाव्य कहते हैं-] । (२९२) श्लोकार्थ-देवेन्द्रों के आसन कपायमान होने में कारणभूत पने महान कैवल्यबोध के उदय हो जाने पर मुक्तिश्रीरूपी स्त्री के मुखकमल को विकसित करने में सूर्यस्वरूप और सद्धर्म की रक्षा के लिए मणिसदृश ऐसे पुराण--- सनातनरूप जिनेन्द्र देव की यदि संपूर्ण प्रवृत्तियों होती हैं तो भी उनके मन नहीं है । अर्थात वे क्रियायें अभिप्रायपूर्वक नहीं हैं । सो ये भगवान अपरिमेय-अगम्य महिमाशाली हैं और पापरूपी वन के लिए पावकस्वरूप हैं।
1 भावार्थ-अहन भगवान् के केवलज्ञान प्रगट होते ही देवों के आसन कंपिन हो जाते हैं। ऐसे महिमाशाली जिनेन्द्र की सारी प्रवृत्तियां अभिप्राय रहित होती हैं क्योंकि उनके भाव इंद्रिय और भाव मन नहीं हैं।
१. प्रवचनमार गाथा ४४ ।