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नियमसार
( अनुष्टुभ् )
आत्माराधनया हीनः सापराध इति स्मृतः । अहमात्मानमानन्दमंदिरं नौमि नित्यशः ॥ २६६॥
वि इंदिय उवसग्गा, गवि मोहो विम्हियो ग णिद्दा य । रग य तिन्हा व छहा, तत्थेव य होइ णिवाणं ॥ १८० ॥
नापि इन्द्रियाः उपसर्गाः नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च । न च तृष्णा नैव क्षुधा तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥ १८० ॥
नहि इन्द्रियां जहां पर उसमें भी नहीं । नहि मोह और विस्मय निद्रा भी तो नहीं ||
बाधा नहीं क्षुधा की तृष्णा भिनहीं है । होती वही तो निश्चित निर्वाण मही है || १५०||
परमनिर्वाणयोग्य परमतत्वस्वरूपाख्यानमेतत् । अखंडेक प्रदेशज्ञानस्वरूपत्वात् स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियव्यापारा: देवमानवतियंग चेतनोपसर्गाश्च न
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( २९६ ) श्लोकार्थ - आत्मा की आरावना मे होन जोव अपराध महित हैं। ऐसा माना गया है, इसलिये मैं नित्य ही आनन्द के मन्दिर-स्थान स्वरूप अपनी आत्मा को नमस्कार करता हूँ ।
गाया १५०
अन्वयार्थ - [इन्द्रियाः उपसर्गाः अपि ] जहां पर इंद्रियां नहीं हैं और उपसर्ग भी नहीं है [ मोहः विस्मयः अपि न ] मोह और विस्मय भी नहीं है, [ निद्रा च न ] और निद्रा भी नहीं है, [तृष्णा च न ] तृष्णा भी नहीं है तथा [ क्षुधा न एव ] क्षुधा भी नहीं है [ तत्र एव च निर्वाणं भवति ] वहीं पर निर्वाण है ।
टीका—यह परमनिर्वाण के योग्य ऐसे परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है ।
अखण्ड एकप्रदेशी ज्ञानस्वरूप होने से स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण नामवाली इन पांच इंद्रियों के व्यापार ( उस परमतत्त्व ) में नहीं हैं, तथा देव,