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शालोपयोग अधिकार
[ ४८५ नापि कर्म नोकर्म नापि चिन्ता नैवात रौद्रे । नापि धय॑शुक्लध्याने तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥१८१।।
जहां कर्म हैं नहीं कुछ नोकर्म भो नहीं। पिता व सतराद्री दुश्यान भी नहीं ।। नहिं धर्म शक्ल दोनों भि ध्यान जहां पर ।
निर्वागा नाम से तो होता वही सुन्दर ।।१८।। सकलकर्मविनिर्मुक्तशुभाशुभशुद्धध्यानध्येयविकल्पविनिर्मुक्तपरमतत्वस्वरूपात्यानमेतत् । सदा निरंजनत्वान्न द्रव्यकर्माष्टक, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वान्न नोकर्मपंचक च, अमनस्कत्वान्नचिता, औदयिकादिविभावभावानामभावादातरौद्रध्याने न स्तः, धर्म्य - शुक्लध्यानयोग्यचरमशरीराभावात्तद्वितयमपि न भवति । तत्रैव च महानंद इति ।
गाथा १८१
अन्वयार्थ-[ कर्म नोकर्म अपि न ] जहां पर कम और नोकर्म भी नहीं है. [चिना अपि न ] चिता भी नहीं है, [ आर्तरौद्र एव न ] अनं-रौद्रभ्यान भी नहीं है तथः [ धर्मशुक्लध्याले अपि न ] मध्यान और शुक्लध्यान भी नहीं हैं [ तत्र एव च निर्वाणं भवति | वहीं पर निर्वाण है ।
टीका--सकलकर्म से निर्मुक्त, शुभ-अशुभ और शुद्धता ध्यान-ध्येय रो जिन ऐसे परमतत्त्व के स्वरूप का यह कथन है ।
गदा निरंजनरूप होने से जिनके आठों कर्म नहीं हैं, लीनों कालों में उपाधि रहित स्वपवाले होने मे जो पांच 'प्रकार से नोकर्म से रहित हैं. मन रहित होने से जिन्हें चिता नहीं है, औदयिक आदि विभावभावों के अभाव रो जिनके आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान के योग्य ऐसे चरमशरीर के अभाब से ये दोनों ध्यान भी नहीं हैं । वहीं पर महान आनन्द है ऐसा समझना ।
१. प्रौदारिक ग्रादि पांच प्रकार के शरीर पांच प्रकार के नोकर्म हैं ।