Book Title: Niyamsar
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 533
________________ ४१० ] नियमसार जीवाणं पुग्गलाणं, गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे, ततो परदो ण गच्छति ॥ १८४ ॥ जीवानां पुद्गलानां गमनं जानीहि यावद्धर्मास्तिक: । धर्मास्तिकायाभाये तस्मात्परतो न गच्छति ।। १८४ । जीवों का पुद्गलों का जाना हो वहीं तक | धर्मास्तिकाय रहता सहकारि जहां तक ॥। धर्मारित काय का कहां प्रभाव है श्रागे । स हि सिद्ध लोक से जाते नहीं आगे || १८४।। अत्र सिद्धक्षेत्रादुपरि जीवपुद्गलानां गमनं निषिद्धम् । जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं विभावक्रिया षट्कापक्रमयुक्तत्वं पुद्गलानां स्वभावक्रिया परमाणुगतिः विभाव क्रिया यणुकादिस्कन्धगतिः । प्रतोऽमीषां त्रिलोकशिखरादुपरि गतिक्रिया भावार्थ - कर्मों से छूटना ही मुक्ति है और जो कर्मों से छूट चुके हैं वे ही मुक्त हैं। पुनः मुक्ति और मुक्त जीवों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि मुक्ति के बिना मुक्त जीव अथवा मुक्त जीवों के बिना मुक्ति नामकी कोई चीज नहीं है । गाथा १८४ अन्वयार्थ - [ जीवानां पुद्गलानां गमनं ] जीत्रों का और पुद्गलों का गमन [जानीहि ] वहां तक ही जानो कि [ यावत् धर्मास्तिक: ] जहां तक धर्मास्तिकाय है, [ धर्मास्तिकाया भावे ] क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में [तस्मात् परतः ] उससे आगे [ न गच्छति ] नहीं जाते हैं । टीका -- यहां सिद्धक्षेत्र के ऊपर जीव और पुद्गलों के गमन का निषेध किया है। जीवों की स्वभाव क्रिया सिद्धि के लिये गमन है और विभाव क्रिया छह अपक्रम से युक्त गमन है अर्थात् अन्य भव में जाते समय छह दिशाओं में जो गमन होता है उसे अपक्रम कहते हैं । पुद्गलों की स्वभाव क्रिया परमाणु की गति है और विभाव क्रिया द्वणुक आदि स्कंधों की गतिरूप है । इसलिये इनकी त्रिलोक शिखर के

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