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नियमगार शास्त्रादौ गृहीतस्य नियमशब्दस्य तत्फलस्य चोपसंहारोयम् । नियमस्तावच्छुद्धरत्नत्रयव्याख्यानस्वरूपेण प्रतिपादितः । तत्फलं परमनिर्वाणमिति प्रतिपादितम् । न कवित्वदात् प्रवचनभक्त्या प्रतिपादितमेतत् सर्वमिति यावत् । यद्यपि पूर्वापरदोषो विद्यते चेत्तदोषात्मकं लुप्त्वा परमकवीश्वरास्समयविदश्चोत्तमं पदं कुर्वन्विति ।
( माननः) जयति नियमसारस्तत्फलं चोत्तमानां हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात् । प्रवचनकृतभक्त्या मूत्रकृद्धिः कृतो यः स खल निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्गः ।।३०५।।।
इसमें पुर्वापर विरोध हो तो [समयज्ञाः] आगन के ज्ञाता [ अपनीय ] उसे दूर करके [ पूरयंतु | पूर्ण करे।
शास्त्र के आरम्भ में कथिन न्यिम शब्द का और उसके फल का यह उपमहार ।
नियम तो शुद्धगन्नत्रय के व्याख्यान स्वरूप में प्रतिपादित किया गया है और उसका फल परम निर्वाण है ऐसा प्रतिपादित किया है कवित्य के गर्व से मैंने यह कथन नहीं किया है। किंतु प्रवचन की भक्ति मे यह गब प्रतिपादित किया गया है। यदि
इसमें पूर्वापर दोष होवे तो आगम वेत्ता परमकवीश्वर उन दोषात्मक पदों का लोप __ करके दूर कर के उत्तम पद को कर लेवे, ऐसा अभिप्राय है।
[ अब टीकाकार मुनिराज नियम और उगक फल के महत्व को कहदे हा एक कला काव्य कहते है-]
(३०५) श्लोकार्य-यह नियमसार और उसका फल उत्तम पुरुषों के हृदय कमल में जयशील हो रहा है, क्योंकि वह निर्वाण का कारण है। प्रवचन की भक्ति से सूत्रकार श्री कुदकुददेव ने जो कहा है वह निश्चितरूप से अखिल भव्य ममूह के लिये निर्वाण का मार्ग है।