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निगमगार
तथा हि
( मंदाक्रांता।
यस्मिन् ब्रह्मण्यनुपमगुणालंकृते निर्विकल्पेऽक्षारणामुच्चविविधविषमं वर्तनं नैव किंचित् । नेवान्ये वा भविगुणगणाः संसृतेमूलभूताः तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्धारणमेकम् ॥३००।
रणवि कम्मं गोकम्म, रवि चिता व अट्टरुहाणि । रणवि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ रिणवाणं ॥१८१॥
भावार्थ-जिम परमतत्त्व में जन्म, मरग आदि के दःख, पराभव, गमनआगमन आदि कुछ भी विकार नहीं है । उस तन्त्र को प्राप्त करने के लिये गुरुओं के नगणकमलों की उपामना ही सबगे प्रमुख उपाय है ।
इसीप्रका ग | टीकाकार मुनिराज भी निर्वाण के बाप को कहत हाए __ शलाक कहते हैं--1
(३०० ) श्लोकार्थ—अनुपम गुणों से अलंकृत और निविकल्प ऐगे जिस बता म-आन्मानन्ध में इंद्रियों का विविध और विपमरूप किचित् भी वर्तन अत्यनप से नहीं है, तथा संसार के लिये मूलभून, अन्य संसारो गुण समुदाय भी नहीं हैं। उस ब्रह्मस्वरूप में नित्य ही निजसुखमय एक-अद्वितीय निर्वाण प्रतिभामित होता है ।
भावार्थ-अनंत गुणपुज स्वरूप और ममस्त विकल्पों से रहित पूर्ण ___ निर्विकल्प ऐग शुद्धात्मा में शुद्ध निश्चयनय से संसार संबंधी रागद्वेष आदि विकार
भाव नहीं हैं । वस ऐसी बोतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होने पर ही निर्वाण सुख प्रगट हो जाता है ।