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शुद्धोपयोग अधिकार
। ४१ केवलिभट्टारकस्यामनस्करवप्रद्योतनमेतत् । भगवतः परमाहस्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिनः परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं न किमपि वर्तनम, अतः स भगवान न चेहते मनःप्रवृत्तरभावात् अमनस्का: केलिनः इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्व श्रीविहारादिकं करोति । ततस्तस्य तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुविधबंधो न भवति । स च बंधः पुनः किमर्थं जातः कस्य संबंधश्च । मोहनीयकर्मबिलास विजम्भितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति साक्षार्थ मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति ।
तथा चोक्त प्रवचनसारे
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[तस्मात् बंधः न भवति ] इसलिये उनकं बंध नहीं होता, तथा [मोहनीयस्य] मोह से सहित जीव के [साक्षार्थं] इंद्रिय के विषयसहितरूप से बन्ध होता है।
टोका- केवली भट्टारक के अमनस्कता का यह प्रकाशन है। गरम आइत्यलक्ष्मी से विराजमान परमवीतराग सर्वज्ञ कंवली भगवान् के इच्छापर्वका कुछ भी प्रवृत्ति नहीं है, इसलिए वे भगवान् इच्छा नहीं करते हैं पयोंकि उनके मन को प्रवृत्ति का अभाव है अथवा "अमनस्काः वेवलिनः" केवली भगवान् मनरहित हैं, ऐसा कथन होने से वे भगवान् न इच्छापूर्वक ठहरते हैं, न इच्छापुर्वक बैठते हैं और न इच्छा पूर्वक श्रीविहार आदि ही करते हैं। इसलिए उन तीर्थ कुर परमदेव के द्रव्य और भावरूप से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप त्रारी प्रकार का बन्ध नहीं होता है।
प्रश्न-पुनः यह बन्ध किसकारण से होता है ? और किसके होता है ?
उत्तर-वह कर्मबन्ध मोहनीयकर्म के विलास से उत्पन्न होता है, साक्षार्थइन्द्रियों के विषय से जो सहित हैं वे साक्षार्थ हैं, ऐसे मोहनीयकर्म के वशीभूत हा इन्द्रियविषयों में प्रवृत्ति करनेवाले संसारी जीवों के ही वह बन्ध होता है। ऐसा अर्थ हुआ।
उसीप्रकार से प्रवचनसार में कहा है