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नियममार कारणपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । निसर्गतः संसृतेरभावाज्जातिजरामरणरहितम्, परमपारिणामिकभावेन परमस्वभावत्वात्परमम्, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वात् कर्माष्टकजितम्, द्रव्यभावकर्मरहितत्वाच्छुद्धम्, सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजचिच्छक्तिमयत्वाज्ज्ञानादिचतुःस्वभावम्, सादिसानधनमून्द्रियात्मकविजातीयांवभावव्यंजनपर्यायवी. तत्वावक्षयम्, प्रशस्ताप्रशस्तगतिहेतुभूतपुण्यपापकर्मद्वन्द्वाभावादविनाशम्, वधमन्धच्छेदयोग्यमूर्तिमुक्तत्वादच्छेद्यमिति ।
( मालिनी) अविचलितमखंडज्ञानमद्वन्द्वनिष्ठ निखिलदुरितदुर्गवातदावाग्निरूपम् ।
टोका–कारण परमतत्त्र के स्वरूप का यह कथन है ।
म्वभाव में मंमार का अभाव होने से जो जन्म, जरा और मरण से रहित है, परम पारिणामिक भाव के द्वारा परमस्वभाव होने से परम हैं, कालिक उपाधि रहित स्वरूपवाले होने से आठों कर्मों से रहित हैं, द्रव्यकर्म और भावकर्म से रहित होने मे शुद्ध है. महजज्ञान, महज़दर्शन, सहजनास्त्रि और सहजचैतन्य शक्तिमय होने से जानादि चा स्वभ बवाल हैं, अर्थात् अनंतचतुष्टय सहित हैं, सादि और सांत, मूर्तिक इंद्रि प, विजातीय ऐसी विभावव्यंजन पर्याय से रहित होने में अक्षय हैं. प्रशस्त तथा अप्रशस्तगति के लिए हेतु भून ऐसे पुण्य-पाप कर्मरूप हद के अभाव में अविनाशी हैं, और बंध तथा बंध के द्वारा छेदन के योग्य ऐसी मति म युक्त होने मे अच्छेद्य-नहीं रिदने प्रोग्य है ।
भावार्थ-ग्रह सिद्धों का म्घमा बनलाया गया है. गुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीवों की आत्मा भी ऐसी ही सिद्धस्वरूप है उमे कारणपरमतरव कहते हैं।
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज मिद्धभक्ति की प्रेरणा देते हुए कहते हैं-]
(२९६) श्लोकार्थ- जो अविचल हैं, अचण्ड ज्ञानरूप हैं, राग द्वेषादि द्व ।। में स्थिन नहीं हैं, ममम्त दुरित के दुस्तर समूह को भस्मसात् करने में अग्निरूप हैं