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शुद्धोपयोग प्रधिकार
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तथा हि--
( शार्दूलविक्रोडिन । भावाः पंच भवन्ति येष सततं भावः परः पंचमः स्थायी संसृतिनाशफारणमयं सम्यग्दृशां गोचरः । तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकर बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान एको भाति कलौ युगे मुनिपतिः पापाटधीपावकः ॥२६७।।
..-.- . तुम समझो । इधर आवो, आवो तुम्हाग पद यह है, यह है जहां पर शुद्ध-शुद्ध चैतन्य धातु अपन रस के अतिशय भार से स्थायी भाव को प्राप्त हो रहा है।"
भाई-आत्रवः ध्यजीवों को अन्यन्त कम्णाभाव मे समझा रहे । हैं कि अरे भव्य ! राग से अंधे हये ये मंसारो प्राणी अनादिकाल में अपने स्थान से । च्युत होते हुए अन्य गिगक निन्दास्थान में भटक रहे हैं वास्तव में यह तुम्हारा स्थान नहीं है, यहां दो-दो बार कहने से आचार्य श्री की अतिशय कम्णा झलक रही है । वास्तव में आचार्य बड़े ही प्रेम में बुला रहे है कि भाई ! इधर आवो आवो जो कि मोक्षपद है और जहां कि चैनन्यमयी बात स टिन तम्हारा दिव्य शरीर है जो कि अविनाशी है।
उसीप्रकार में [ टीकाकार मनिराज इस कलिकाल में भी महामुनि की। प्रशंसा करते हुए कलशकाव्य करते हैं- 1
(२६७) श्लोकार्थ-भाव पाँच होते हैं जिनमें यह परम पंचमभाव सनन् स्थायी है, संसार के नाम का कारण है और सम्यग्दष्टियों के गोचर है । पापरूपी अटवी को जलाने के लिये अग्नि सदश ऐसे बुद्धिमान एक मनिराज ही उस पंचमभाव को जानकर पुन: समस्त रागद्वप के समह को छोड़कर इस कलियुग में शोभायमान होते हैं।
भावार्थ-टीकाकार का स्पष्ट कहना है कि आज इस कलिकालरूप निकृष्ट : काल में भी बीतरागी महामुनि पंचमभाव का आश्रय लेने वाले निःस्पृह ऐसे विचरण करते हैं।