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निगगसार
( अनुष्टुभ् ) षट्कापक्रमयुक्तानां भविनां लक्षणात् पृथक् । सिद्धानां लक्षणं यस्मादूर्ध्वगास्ते सदा शिवाः ॥२६॥
( मंदाक्रांता } बन्धच्छेदादतुलमहिमा देवविद्याधराणां प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नव सिद्धः प्रसिद्धः । लोकस्याग्ने व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः स्वात्मन्युच्चैरबिचलतया निश्चयेनैत्रमास्ते ॥२६४॥
...... ...... - -.- - ---. . . - -- --- में लीन होते हुये भी वे भगवान बहारमोक्षण में लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर लेते हैं।
. [ अब टीकाकार श्री मुनिराज सिद्धों के गुणों का गान करते हुये तीन श्लोक कहते हैं---]
(२६३) श्लोकार्थ-जो छह अपक्रम मे सहित हैं ऐसे संसारी जीवों के लक्षण से सिद्धों का लक्षण भिन्न है, इसलिये वे सिद्ध ऊर्ध्वगामी हैं और सदाशिवकल्याण स्वरूप हैं।
भावार्थ-संसारी जीव परभव में जाने समय चार विदिशाओं को छोड़कर बार दिशाओं में और ऊर्ध्व-अधो ऐसी छह दिशाओं में गमन करते हैं। इसे ही षट अपक्रम कहते हैं।
(२६४) श्लोकार्थ-बंध का उच्छेद हो जाने से अतुल महिमाधारी ऐसे सिद्ध भगवान अब देवों और विद्याधरों के प्रत्यक्ष स्तवन के विषय नहीं हैं ऐसी बात प्रसिद्ध है। बे देवदेव व्यवहारनय से लोक के अग्रभाग में सुरक्षित हैं और निश्चयनय से अपनी आत्मा में अतिशयतया अविचलरूप से ही रहते हैं।