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शुद्धोपयोग अधिकार
[ ४३३ आउस्स खयेण पुणो, णिण्णासो होइ सेसपयडीरणं । पच्छा पावइ सिग्धं, लोयग्गं समयमेत्तेण ॥१७६।।
आयुषः क्षयेण पुनः निर्माशो भवति शेषप्रकृतीनाम् । पश्चात्प्राप्नोति शीव्र लोकाग्न समयमाण ।।१७६॥
पायु का नाश होता उन केवनी को जब । प्र शेष प्रकृनियों का जई में गिनाग मब ।। नन शोधक समय में वे लोक शिखर ।
जकर के तिष्ठते हैं मुक्त्पंगना कर के ।१७६।। शुद्धजीवस्य स्वभावगतिप्राप्त्युपायोपन्यासोऽयम् । स्वभावगतिक्रियापरिणतस्य षट्कापनमविहीनस्य भगवतः सिद्धक्षेत्राभिमुखस्य ध्यानध्येयध्यातृतस्फलप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां नि शो भवति । शुद्धनिश्चयनयेन स्वस्वरूपे सहजमहिम्ति लीनोऽपि व्यवहारेण स भगवान् क्षणार्धन लोकाग्रं प्राप्नोतीति । - ....
गाथा १७६ अन्वयार्थ--[पुनः] फिर-उन केवलो के [श्रायुषः क्षयेण] आयु के भय से [शेष प्रकृतीनां ] शेष प्रकृतियों का [निर्मशः भवति ] संपूर्णतया विनाश हो जाता है [ पश्चात् ] पुनः वे [ शीघ्र समयमात्रेण ] शीघ्र ही एक समय मात्र में [ लोकाग्रं प्राप्नोति ] लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर लेते हैं।
टोका-शुद्ध जीव के स्वाभाविक गति की प्राप्ति के उपाय का ग्रह कथन है ।
स्वाभाविक गति क्रिया से परिणत, छह अपक्रम से रहित, सिद्ध-क्षेत्र के सन्मुख हुए जो भगवान हैं, उनके ध्यान, ध्येय, ध्याता और उसके फल की प्राप्ति और प्रयोजन के विकल्पों से शन्य, अपने स्वरूप में अविचलस्थितिरूप ऐसे परम शूक्लध्यान के द्वारा आयु कर्म का क्षय हो जाने पर वेदनीय, नाम और गोत्र नामकी शेष प्रकृतियों का समूल नाश हो जाता है । शुद्ध निश्चयनय से सहज महिमाशाली ऐसे अपने स्वरूप