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नियगसार
ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अभिप्राय से भेद है । पर के विसंवाद को दुर करने के लिये न्याय शास्त्र होते हैं इसलिए उनमें स्वीकृत निर्विकल्पदर्शन ( बौद्ध ने ज्ञानको निर्विकल्पदर्शन कहा है) की प्रमाणता का खण्डन करने के लिए स्याद्वादियों ने दर्शन को सामान्य ग्रहण करने वाला माना है. किंतु वास्तव में स्वरूप का ग्रहण करना ही दर्शन है क्योंकि केवलियों में ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति होती है ।
इसी बात को द्रव्यसंग्रह की टोका में भी कहा है
तर्क- न्याय के अभिप्राय से मत्तावलोकन को दर्शन कहा है इसके बा सिद्धांत के अभिप्राय से कहते है आगे होने वाले ज्ञानकी उत्पत्ति के लिये प्रयत्नरूप जो निज आत्मा का परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन वह दर्शन कहलाता है और उसके पीछे जो बाह्य विषय में विकल्परूप से पदार्थ का ग्रहण है वह ज्ञान है, यह बार्तिक है 1...... शिप्य कहता है कि यदि आत्मा का ग्राहक दर्शन है और परका ग्राहक ज्ञान है तो नैयायिक के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है वैसे जैनमत में भी जान आत्मा को नहीं जानेगा ?
इसका उत्तर यह है कि नेयायिक मन में ज्ञान और दर्शन ये दो गुण पृथक्पृथक नहीं हैं । किंतु जैनमत में आत्मा ज्ञान गुण से परद्रव्य को जानता है और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है । ...... . क्योंकि यदि सामान्य ग्राहक दर्शन और विशेष ग्राहक ज्ञान होंगे तब ज्ञान को प्रमाणता नहीं होगी। क्योंकि वस्तु का ग्राहक प्रमाण है और वस्तु सामान्य विशेषात्मक है, पुनः ज्ञान ने वस्तु के एकदेशरूप ऐसे विशेष को ही ग्रहण किया है वह विशेष वस्तु नहीं है । अतः सिद्धांत से निश्चय से गुण गुणी में अभेद होने से संशय, विमोह, विभ्रम से रहित जो वस्तु का ज्ञान है उस ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । "
निष्कर्ष यह निकला कि न्याय अर्थ और सिद्धांत - अर्थ को जानकर दुराग्रह का त्याग करके नय विभाग से जब कोई मध्यस्थ वृत्ति से व्याख्यान करता है तब दोनों
१. बृहद्रव्यसंग्रह पृ० १८३ ।
२. यदि कोऽपि तर्कार्थं सिद्धांतार्थं च जाकांत दुराग्रहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटल इति ।