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निगमसार
श्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनः प्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिनः परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः पुनस्तेन कारणेन स भगवान् अन्धक इति ।
तथा चोक्त' श्रीप्रवचनसारे
तथा हि
" ण वि परिणमवि ण गेहदि उप्पज्जदि णेव तेसु असु । जाणावि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ॥ "
( मंदाक्रांता )
जानन् सर्वं भुवनभुवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थ पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेशः ।
अपेक्षा से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के आधारभूत होने से विश्व का निरन्तर जानते हुए भी और देखते हुए भी मन की प्रवृत्ति का अभाव होने से न केवली परम भट्टारक के ईहापूर्वक वर्तन नहीं होता है । इसलिये वे भगवान् केवलज्ञानी हैं यह बात प्रसिद्ध है, पुन: उसी कारण से वे भगवान् अबंधक हैं ।
उसी प्रकार से श्री प्रवचनासर में कहा है
"गाथार्थ - आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उनरूप परिणमन नहीं करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उन पदार्थों में उत्पन्न हो होता है, इसलिये वह अबंधक कहा गया है ।"
भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् सभी पदार्थों को जानते हुए भी न उनरूप परिणत ही होते हैं न उनको ग्रहण ही करते हैं और न उनरूप से उत्पन्न होते हैं और इसीलिये उन्हें पूर्ण वीतरागता रहने से कर्मों का बंध नहीं होता है ।
उसी प्रकार से [टीकाकार मुनिराज काव्य कलश द्वारा कहते हैं— ]
( २८८ ) श्लोकार्थ - सहज महिमाशाली देवदेव जिनेश्वर भुवनरूपी भवन
के भीतर में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए तथा वैसे ही देखते हुए भी मोह का