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तथा चोक्तम्
नियममार
"गाणं अव्विदिरित जीवादो तेण अप्पगं मुणइ । जदि अप्पगं ण जागइ भिण्णं तं होदि जीवादो ॥ " प्रयाणं विरगु णाणं, खाणं विणु अप्पगो रग संदेहो । तम्हा सपरपयासं, गाणं तह दंसणं होदि ॥ १७१ ॥
आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्ध्यात्मको न संदेहः । तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ।। १७१ ।।
आत्मा को ज्ञान जानो ओ ज्ञान आत्मा 1 ऐसा हि जान निश्चित संदेहनाशना || अतएव ज्ञान होता निजपर प्रकाशकर। दर्शन उसी तरह मे निजपर प्रकाशकर ।।१७९॥
भावार्थ - ज्ञान तो शुद्ध आत्मा का स्वभाव है यदि वह साधक अवस्था में अपनी आत्मा का अनुभव नहीं करना है तो वह आत्मा का स्वभाव नहीं रहेगा। किंतु ऐसा है नहीं अतः जान स्वसंवेदनरूप से प्रारम्भ अवस्था में भी आत्मा का अनुभव कराता है ।
इसीप्रकार से और भी कहा है
"गाथार्थ - ज्ञान जोव से अभिन्न है, इसलिये यह आत्मा को जानता है, यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह जीव से भिन्न ही सिद्ध होगा ।"
गाया १७१
श्रन्वयार्थ -- [ आत्मानं ज्ञानं विद्धि ] तुम आत्मा को ज्ञान समझो और [ ज्ञानं आत्मक: विद्धि ] ज्ञानको आत्मा समझो, [ न संदेह: ] इसमें संदेह नहीं है । [तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानं तथा वर्शनं ] ज्ञान तथा दर्शन [स्वपर प्रकाशं ] स्वपर प्रकाशी [ भवति ] होते हैं ।
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