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निश्वय-परमावश्यक अधिकार
[ ४१७ सकलवाग्विषयव्यापारनिरासोऽयम् । पाक्षिकाविप्रतिक्रमण क्रियाकारणं निर्यापकाचार्यमुखोद्गतं समस्तपापक्षयहेतुभूतं द्रध्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान ग्राह्य भवति, प्रत्याख्याननियमालोचनाश्च । पौद्गलिकवचनमयत्वात्तत्सर्व स्वाध्यायमिति रे शिष्य त्वं जानीहि इति ।
( मंदाक्रांता) मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः । नित्यानंदादादला हिमापार रुपये स्थित्वा सर्व तृगमिव जगज्जालमेको ददर्श ॥२६३।।
- -- - - - - टीका--यह ममस्त वचन विषयक व्यापार का निराकरण है।
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पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्रिया का कारण ऐमा जो निर्यापकाचार्य के मुखकमल से निकला हुआ और समस्त पापों के क्षय में हेतुभूत जो अखिल द्रव्यश्रुत है वह वचन वर्गणा के योग्य पुद्गल द्रव्यरूप होने से ग्राह्य नहीं है । तथा प्रत्यास्यान नियम और आलोचना भी (पद्गल द्रव्यात्मक होने से) ग्राह्य नहीं है। पौद्गलिक वचनमय होने से ये सब स्वाध्याय हैं ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।
भावार्थ-निश्चयनय की अपेक्षा से वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान में स्थित हुये साधु के सभी बच नरूप क्रियायें अग्राह्य हैं अर्थात् उस अवस्था में वे स्वयं ही नहीं हैं और जब तक ये क्रियायें हैं तब तक सब स्वाध्यायरूप ही हैं ।
[अब टीकाकार मुनिराज निजात्मध्यानी साधु का स्वरूप कहते हैं-]
(२६३) श्लोकार्थ-निर्वाण स्त्री के पुष्ट स्तन युगल के आलिंगन जन्य सौख्य की स्पृहा से सहित भव्य जीव इसो हेतु से समस्त वचन रचना को छोड़कर और नित्यानन्द आदि अतुलमहिमा के धारक ऐसे अपने स्वरूप में स्थित होकर वह एकाकी समस्त जगत् जाल को तृण के समान देखता है ।