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निश्रय-परमावश्यक अधिकार
[ ४२३ नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः । तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयवर्जनीयः ॥१५६।।
नाना प्रकार जन नाना विध करम हैं। माना प्रकार लब्धी दिखती जगत में। इस हेतु से स्वमन परमन के जनों से ।
जो भी विवाद वच का मन्त्र छोड़ दोजे ।। १५६।। वाग्विषयच्यापारनिवृत्ति हेतूपन्यासोऽयम् । जीवा हि नानाविधाः मुक्ता अमुक्ताः भव्या अभव्याश्च, संसारिणः त्रसाः स्थावराः । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंक्यसंझिमेदात् पंच प्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः। भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणः भबनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता ह्यभव्याः । कर्म नानाविधं द्रव्यभावनीकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ तीव्रतरतीवमंदमंदतरोदयभे- - - - - - - - - .. -- -- - - -- ----
गाथा १५६ अन्वयार्थ--[ नानाजीवाः ] नाना प्रकार के जीव हैं [ नानाकर्मः ] नाना प्रकार के कर्म हैं, [नानाविधा लब्धिः] और नाना प्रकार की लब्धियां हैं [तस्मात्] इसलिए [स्वपर समयैः] ग्व और पर समय सम्बन्धी [ वचनविवाद: ] वचन विवाद [वर्जनीयः] वजित करना चाहिए ।
टीका-यह वचन विषयक व्यापार के अभाव के हेतु का कथन है ।
___ जीव अनेक प्रकार के हैं, मुक्त और संसारी, भव्य और अभब्य तथा मंसारी के बस और स्थावर इन्यादि भेद हैं। इनमें भी दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, तथा पंचेन्द्रिय के संज्ञी और असंजी इन भेदों से श्रस जीव के पांच भेद हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और बनस्पति ऐसे स्थावर के भेद हैं ।
भावी काल में स्वाभाविक अनंतचतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादिक गुणों से होने योग्य भव्य होते हैं, इनसे विपरीत अभव्य हैं । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो कर्म के भेद से कर्म अनेक प्रकार के हैं अथवा मूल प्रकृति और उत्तरप्रकृति के भेदों से अथवा