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तथा हि
नियमसार
( स्रग्धरा "जानमप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं महाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निलूं नकर्मा । तेनासो कुरा एवं प्रस भविकसितज्ञप्ति विस्तारपीतज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ॥ "
( मंदाक्रांता )
ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा लोकालोको प्रकटयति वा तद्वतं ज्ञेयजालम् । दृष्टिः साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा ताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ॥। २७७ ।।
जाणं परप्पयासं, तइया णाणेण दंसणं भिण्णं । रण हवदि परदव्वगयं, दंसणमिदि वण्णि दं तम्हा ||१६२ ||
" श्लोकार्थ - जिसने कर्मों को छिन्न कर दिया है, ऐसा वह आत्मा, भुत, भविष्यत् और वर्तमान समस्त विश्व को युगपत् जानता हुआ भी मोह के अभाव से पररूप परिणत नहीं होता है । इसलिये जिसने अत्यन्त विकसित हुई ज्ञप्ति के विस्तार से समस्त ज्ञेयाकारों को पी लिया है। ऐसे तीन लोक संबंधी पदार्थों को पृथक् अपृथक् उद्योतित करता हुआ यह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।" और
उसी प्रकार से [ अब टीकाकार मुनिराज इसी को स्पष्ट करते हुये कहते हैं--]
( २७७ ) श्लोकार्थ -- ज्ञान एक सहज परमात्मा को जानकर लोकालोक को अथवा उसके समस्त ज्ञेय जाल को प्रगटित करता है । और नित्य शुद्ध, क्षायिक दर्शन भी साक्षात् स्वपर को विषय करता है । उन दोनों के द्वारा यह देव ( आत्मा ) स्वपर विषयक ज्ञेय समूह को जानता है ।