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शुद्धोपयोग अधिकार
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ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम् । न भवति परद्रव्यगतं दर्शन मिति वरिणतं तस्मात् ।।१६२॥
यदि मात्र परप्रकाशक ये ज्ञान है तब तो। इस ज्ञान से वो दर्शन होवेगा भिन्न तो ।। क्योंकि तुम्हारे मत से दर्शन स्वगा-रहे ।
नहि परप्रकाश करता परद्रव्यमत न है ॥१६२।। पूर्वसूत्रोपात्तपूर्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्तिरियम् । केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनं भिन्नमेव । परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति चेत सह्यविध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत् । आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव, निराधारत्वात तस्य जानस्यशुन्यलापत्तिरेव, अथवा अत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्रव्यं सर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतनः
अन्वयार्थ-[ ज्ञानं पर प्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशी है [ तदा ] तब तो [ ज्ञानेन दर्शनं भिन्न ] ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध हुआ, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत-परद्रव्यों का प्रकाशक नहीं होता है [ इति वर्णितं तस्मात् ] ऐसा पूर्व में वर्णन किया है ।।
टोका---पूर्व सूत्र में कथित पूर्वपक्ष का यह सिद्धान्त संबंधी कथन है ।
यदि ज्ञान केवल परप्रकाशी होवे तो परप्रकाशन में प्रधान ऐसे इस ज्ञान से दर्शन भिन्न हो रहेगा । और यदि ऐसा है तो परप्रकाशी ज्ञान और स्वप्रकाशी दर्शन : का संबंध कसे होगा ? जैसे कि सह्य और विध्य पर्वत का अथवा भागीरथी और । श्रीपर्वत का संबंध नहीं है ।
जो आत्मा में स्थित है वह दर्शन ही है, तब तो निराधार होने से उस ज्ञान । को शून्यता की ही आपत्ति होती है । अथवा जहां, जहां ज्ञान जावेगा, वे वे सभी द्रव्य । चेतनरूप हो जावेंगे, अतः त्रिभुवन में कोई अचेतन पदार्थ नहीं सिद्ध होगा, ऐसा इस