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शुद्धोका अधिकार
४५१ मुत्तममुत्तं दध्वं, चेयरमियरं सगं च सव्वं च । पेच्छंतस्स दु पारणं, पच्चक्खमरिणदियं होई ॥१६७।।
मूर्तममूतं द्रव्यं चेतनमितरत् स्वकं च सर्व च । पश्यतस्तु ज्ञानं प्रत्यक्षमतीन्द्रियं भवति ।।१६७।।
मूर्तिक अमुर्त चेतन और जड़ हैं द्रव्य जो । निजपर स्वरूप जो भी संपूर्ण वस्तु को ।। जो देख रहे नित ही उनका ही ज्ञान यो ।
प्रत्यक्ष व अतीन्द्रिय माना गया है वो ।। १६७ ।। केवलबोधस्वरूपाख्यानमेतत् । षण्णां द्रव्याणां मध्ये मूर्तत्वं पुद्गलस्य पंचानाम् प्रमूर्तत्वम, चेतनत्वं जीवस्यैव पंचानामचेतनत्वम् । मूर्तामूर्तचेतनाचेतनस्वद्रव्यादिकमशेष त्रिकालविषयम् अनवरतं पश्यतो भगवतः श्रीमदर्हत्परमेश्वरस्य क्रमकरणच्यवधानापोडं चातीन्द्रियं च सकलविमलकेवलज्ञानं सकलप्रत्यक्ष भवतीति ।
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है। अत: स्व की अपेक्षावाला-स्वाश्रित निश्चय है और पर की अपेक्षावाला पराश्रित व्यवहार है । ऐसी विवक्षा शैली से ही ऐसा कथन है ।
गाथा १६७ अन्वयार्थ-[ मूर्त अमूर्त ] मूर्तिक अमूर्तिक, [ चेतनं इतरत् ] चेतन और अचेतन [द्रव्यं ] द्रव्यों को [ स्वकं च सर्व ] अपने को तथा समस्त को [ पश्यतः तु] देखने वाले का [ज्ञानं] ज्ञान [अतीन्द्रियं प्रत्यक्षं भवति ] अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है ।
टीका---यह केवलज्ञान के स्वरूप का कथन है।
छहों द्रव्यों में से पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है शेष पांचों द्रव्य अमूर्तिक है और जीव ही चेतन है शेष पांचों द्रव्य अचेतन हैं । इन तीन काल सम्बन्धी मूर्तिक, अमूर्तिक, चेतन, अचेतन, स्वद्रव्य आदि अशेष को सतत देखते हुए श्रीमान् अहंत परमेश्वर भगवान के क्रम और इन्द्रियों के व्यवधान से रहित अतीन्द्रिय ऐसा सकल विमल केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष होता है ।