________________
४५.२ ]
तथा चोक्त प्रवचनसारे
तथा हि
"जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तसु अविदियं च पच्छष्णं । सयलं सगं च इदरं तं गाणं हवदि पञ्चक्वं ॥ "
निगमसार
( मंदाक्रांता )
सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरुः शाश्वतानन्तधामा लोकालोat werखिलं चेतनं ।
तातयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं
तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथ जिनेन्द्रः ॥ २८३॥
इसीप्रकार से प्रवचनसार में भी कहा है
,
"गाथार्थ- 'देखने वाले का जो ज्ञान अमूर्त को मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय को और प्रच्छल को इन सबको, स्व को तथा पर को भी देखता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है ।"
भावार्थ – जो सर्वदर्शी भगवान् अमूर्तिक पदार्थों को, मूर्तिक पुद्गल में भी अविभागी परमाणु जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों को तथा प्रच्छन्न-काल और देश से अत्यन परोक्ष ऐसे राम रावण आदि और हिमवान् सुमेरु आदि पदार्थों को, अपनी आत्मा को और संपूर्ण लोकालोक को स्पष्ट देखते हैं, इसलिये उनका ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है ।
उसीप्रकार से [ टीकाकार मुनिराज भी अतीन्द्रिय ज्ञानी की स्तुति करने हुए कहते हैं- 1
( २८३ ) श्लोकार्थ केवलज्ञान नामका जो तीसरा एक अन्य नेत्र है, उसी नेत्र के द्वारा ये प्रसिद्ध महिमाशाली, त्रिभुवन गुरु, शाश्वत अनंतधाम में निवास करने
१. प्रव. गाथा ५४.
JA