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शुद्धोपयोग अधिकार
[ ४४३ अप्पा परप्पयासो, तइया अप्पेण दंसरणं भिण्णं । रण हवदि परदब्वगयं, दसरणमिदि वरिपदं तम्हा ॥१६३।।
आत्मा परप्रकाशस्तदात्मना दर्शनं भिन्नम् । न भवति परद्रव्यगतं दर्शन मिति वणितं तस्मात् ॥१६३॥ प्रात्मा है पर प्रकाशक यदि आपका ये मत । तो प्रात्मा से दर्शन होगा स्वयं पृथक् ।। क्योंकि तुम्हारा दर्शन नहिं पर प्रकाशता ।
मी तुम्हीं ने पहले रक्खी थी मान्यता ।।। ६३ ।। एकान्तेनात्मनः परप्रकाशकत्वनिरासोयम् । यथैकान्तेन ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं 1. पुरा निराकृतम्, इदानीमात्मा केवलं परप्रकाशश्चेत् तत्तथैव प्रत्यादिष्टं भावभाववतो
रेकास्तित्वनिवृ त्तत्वात् । पुरा किल ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वे सति तद्दर्शनस्य भिन्नत्वं । ज्ञातम् । अत्रात्मनः परप्रकाशकत्वे सति तेनैव दर्शनं भिन्नमित्यवसेयम् । अपि चारमा
पाग समह के हरण करने वाले ऐसे आत्मा में संज्ञा के भर से ज्ञान और दर्शन में भेद हो गया है, किंतु परमार्थ रो अग्नि और उष्ण के समान वह भेद नहीं है ।
गाथा १६३ अन्वयार्थ— [ आत्मा परप्रकाशः ] यदि आत्मा परप्रकाशी है [ तदा ] । तब तो [ आत्मना दर्शन भिन्न ] आत्मा से दर्शन भिन्न हो जायेगा [ दर्शन परद्रव्य। गतं न भवति ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत नहीं है। [ इति यणितं तस्मात् ] ऐसा । पूर्व मूत्र में वर्णन किया गया है ।
टीका---एकांत से आत्मा के 'परप्रकाशकत्य का यह निरसन है । जिसप्रकार पहले एकांत से ज्ञान के परप्रकाशकत्व का निराकरण किया है, वैसे ही अब यदि "आत्मा केवल परप्रकाशी है" तो उसका उसीप्रकार वपन्दन हो जाता है, क्योंकि भाव और भाववान् एक अस्तित्व से बने हैं। पहले ज्ञान को परप्रकाशक मानने पर उससे दर्शन को भिन्न कहा है और यहां पर आत्मा को परप्रकाशक कहने पर उससे ही दर्शन
* यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है ।