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नियमसार
पदार्थः इति महतो दूषणस्यावतारः । तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यसे है शिष्य तहि दर्शनमपि न केवलमात्मगतमित्यभिहितम् । ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्त हृदयं ज्ञानदर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति ।
तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवैः
तथा हि-
"ज्ञानाद्भिनो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥”
( मंदाक्रांता )
आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत् ताभ्यां युक्तः स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम् । संज्ञाभेदाद कुलहरे चात्मनि ज्ञानदृष्टयोः भेदो जातो न खलु परमार्थेन बह्न ष्णवत्सः ॥। २७८ ।।
महान दूषण का प्रसंग हो जावेगा । इस दोष के भय से यदि तुम ऐसा कहो कि ज्ञान केवल परकाशी नहीं है तब तो हे शिष्य ! दर्शन भी केवल आत्मगत नहीं है, ऐसा ही कहना होगा । इसलिये निश्चितरूप से यही समाधान सिद्धांत के रहस्यरूप है कि ज्ञान और दर्शन कथंचित् स्वपरप्रकाश हैं ही हैं ।
उसी प्रकार से श्री महासेन पंडित देव ने भी कहा है
" श्लोकार्थ - ज्ञान से आत्मा न भिन्न है और न अभिन्न है किंतु कथंचित् भिन्नाभिन्न है, क्योंकि पूर्व और अपर दोनों अवस्थाओं में व्याप्त हुआ जो ज्ञान है, सो यह आत्मा है ऐसा कहा गया है।"
उसी प्रकार से [ अब टीकाकार मुनिराज इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - ]
(२७८) श्लोकार्थ - आत्मा ( एकांत से ) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार दर्शन भी नहीं है, किंतु उन दोनों से युक्त हुआ वह स्वपर विषय को जानता और देखता अवश्य है,