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नियमसार तथा चोक्त श्रुतबिन्दौ---
( मालिनी) "जयति विजितदोषोऽमयंमत्येन्द्र मौलिप्रविलसदुरुमालाभ्यचितांघ्रिजिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्येदृशौ व्यश्नुवाते
सममिय विषयेष्वन्योन्यवृत्ति निषेद्धम् ॥" तथा हि
- - - - - -- - - - - -- भूत तीर्थकरपरमदेव जो कि कार्य परमात्मा हैं वे भी परप्रकाशक हैं । उसो व्यवहार नय के बल से वास्तव में उन भगवान का केवलदर्शन भी वैसा ही है ।
इसीप्रकार में 'थनविदु' में भी कहा है
"श्लोकार्थ-जिन्होंने दोषों को जीत लिया है, देवेन्द्र और नरेन्द्रों के मुकुटों में लगे हये प्रकाशशील अनध्यं मालाओं में अचित हैं चरणयगल जिनके ऐसे जिनेन्द्र भगवान जयवंत हो रहे हैं। विषयों में परस्पर में प्रवेश न करते हुये ऐसे तीनों लोक । और अलोक जिनमें युगपत् ही व्याप्त हो रहे हैं।"
भावार्थ:-जिनके ज्ञानस्वरूप आत्मा में समस्त लोक और अलोक एवं उनके चेतन-अचेतन पदार्थ परस्पर में एक दूसरे में प्रवेश न करके अथवा ज्ञान ज्ञेय में और ज्ञेय ज्ञान में प्रवेश न करके एक साथ झलक रहे हैं ऐसे महिमाशाली गतेन्द्र पूजित, निर्दोष जिनेन्द्र भगवान सदा जयशील हैं।"
उसीप्रकार [ श्री टीकाकार मुनिराज ज्ञानस्वरूप आत्मा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-]
१, यह ग्रन्थ अप्राप्य है ।