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शुद्धोपयोग अधिकार
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ज्ञानं परप्रकाशं व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात् । आत्मा परप्रकाशो व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात् ।।१६४।। अतएब अब समझ लो ब्यवहार नय से यह । है ज्ञान पर प्रकाशी दर्शन उसी तरह ॥ इयवहार नप से आत्मा पर को प्रकाशना ।
दर्शन भी तो बरो ही पर को प्रकाशता ।।१६४।। व्यवहारनयस्य सफलत्वप्रद्योतनकथनमाह । इह सकलकर्मक्षयप्रादुर्भावासादितसकलबिमलकेवलज्ञानस्य पुद्गलादिमूर्तामूर्तचेतनाचेतनपरद्रव्यगुरणपर्यायप्रकरप्रकाशकत्वं कमिति चेत् पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् व्यवहारनयबलेनेति । ततो दर्शनमपि तादृशमेव । त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतभूततीर्थकरपरमदेवस्य शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम् । तेन व्यवहारनयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि तादृशमेवेति ।
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गाथा १६४ अन्वयार्थ— [ व्यवहारनयेन ] व्यवहार नय से [ जानं परप्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशी है [ दर्शनं तस्मात ] इसलिये दर्शन भी परप्रकाशी है, [ व्यवहारनयेन ] व्यवहार नय से [ आत्मा परप्रकाशः ] आत्मा परप्रकाशी है [ दर्शनं तस्मात् ] अतः दर्शन भी परप्रकाशो है।
टीका-व्यवहारनय की सफलता को प्रकाशित करते हुए कहते हैं ।
प्रश्न----यहां जो सकल कर्मों के क्षय से प्रकट होने वाला सकल विमल केवल जान है वह पुदगलादि मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतनरूप परद्रव्य और उनकी गुणपर्यायों के समूह का प्रकाशक कंसे है ?
उत्तर-पराश्रितो व्यवहारः" ( असद्भुत ) व्यवहार पराश्रित है, इस वचन से व्यवहारनय की अपेक्षा से ऐसा है, इसलिये दर्शन भी वैसा ही है और उसीप्रकार से सौ इंद्रों से प्रत्यक्ष में वंदना योग्य, ऐसे त्रैलोक्य में प्रक्षोभ के लिये कारण