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नियममार
गाणं परप्पयासं, दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव । अप्पा सपरपयासो, होदि ति हि मण्णसे जवि हि ॥१६१॥ ज्ञानं परप्रकाशं दृष्टिरात्मप्रकाशिका चैव । आत्मा स्वपरप्रकाशो भवतीति हि मन्यसे यदि खलु ।।१६१॥
एकांत से यदि ज्ञान ये परको हि प्रकाशे । दर्शन भी यदि आत्मा को मात्र प्रकाशे ।। आत्मा स्वपर प्रकाशी है मान्यता यही ।
तब तो सुनो जो दोष इसमें आवते सही ।। १६१।। आत्मनः स्वपर प्रकाशकत्वविरोधोपन्यासोयम् । इह हि तावदात्मनः स्वपरप्रकाशकत्वं कमिति चेत् । ज्ञानदर्शनादिविशेषगुणसमृद्धो ह्यात्मा, तस्य ज्ञानं शुद्धात्मप्रकाशकासमर्थत्वात् पर प्रकाशकमेव, यद्येवं दृष्टिनिरंकुशा केवलमभ्यंतरे ह्यात्मानं प्रकाशयति चेत् अनेन विधिना स्वपरप्रकाशको ह्यात्मेति हहो जडमते प्राथमिकशिष्य, दर्शनशुद्ध रभावात् एवं मन्यसे, न खल जडस्त्वत्तस्सकाशादपरः कश्चिज्जनः । अथ द्यविरुद्धा
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गाथा १६१ अन्वयार्थ— [ ज्ञान पर प्रकाशं च ] ज्ञान परप्रकाशी है और [ दृष्टिः आत्मप्रकाशिका एव ] दर्शन आत्म प्रकाशी ही है तथा [आत्मा स्वपरप्रकाशः भवति] आत्मा स्व और पर का प्रकाशक होता है, यदि इति हि खल मन्यसे] यदि तुम ऐसा ही निश्चित मानते हो, तो ठीक नहीं है।
यह आत्मा के स्वपर प्रकाशकपने के विरोध का कथन है। प्रथम ही यहां आत्मा को स्वपर प्रकाशकपना किस प्रकार है ? आत्मा ज्ञान दर्शनादि विशेष गुणों से समद्ध है, उसका ज्ञान शुद्ध आत्मा को प्रकाशित करने में असमर्थ होने से परप्रकाशक ही है, यदि ऐसी बात है तो दर्शन निरंकुश हुआ केबल अभ्यंतर में ही आत्मा को प्रकाशित करता है और इस विधि से आत्मा ही स्वपर प्रकाशक है, इसप्रकार मानने पर तो हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शन शुद्धि के अभाव से ऐसा मानता हो तो वास्तव में तुझसे भिन्न अन्य कोई पुरुष जड़ नहीं है, अर्थात् तू ही मूर्ख है ।