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शुद्धोपयोग अधिकार
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__तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
( मंदाक्रांता) "बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतनित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोलापतागंभीरधी
पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।" तथा हि
( स्रग्धरा) आत्मा जानाति विश्वं शनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः
मुक्तिश्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति । --.----. .- -. . - - -..- -
उसीप्रकार से श्री अमृतचन्द्रमुरि ने भी कहा है__ "श्लोकार्थ-'अपनी अचल महिमा में लीन हुआ पूर्ण ज्ञान जाज्वल्यमान हो रहा है, जो कि कर्म बंध के विच्छेद से अतुल और अक्षय से मोक्ष का अनुभव करता हा नित्य उद्योतरूप सहजावस्था को प्रकटित करता हुआ एकांत से-सर्वथा शुद्ध है, और एकाकाररूप स्वरम के भार से अत्यन्त गम्भीर तथा धोर है।"
भावार्थ-जव कर्म बंध का अभाव हो जाता है तब जान उपयुक्त विशेषणों से विशिष्ट होता हुआ पूर्णरूप प्रकट हो जाता है और अपने स्वभाव में ही लीन
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उसीप्रकार से | टीकाकार श्री मुनिराज इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ]
(२७२) श्लोकार्थ---यह केवलज्ञान की मूर्तिस्वरूप आत्मा व्यवहारनय से ही विश्व को जानता है, और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी के कोमल मुखकमल पर
१. समयसार कलश-१६२