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शुद्धोपयोग अधिकार
मध्यगतस्य
सर्बाधिनाथस्य
क्षे कचित्काले बलाहकप्रक्षोभाभावे विद्यमाने नभस्स्थलस्य किरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तते तथैव च भगवतः परमेश्वरस्य जगत्त्रयकालत्रयर्थातिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुण पर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकल विमलकेवलज्ञान केवलदर्शने च युगपद् वर्तते । कि च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं विति इति ।
तथा चोक्त प्रवचनसारे
अन्यच्च -
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"जाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु बित्थडा दिट्ठी । मणिट्ठ सम्बं इट्ठ पूजं तु तं ल
।।"
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यहां पर दृष्टांत के पक्ष में किसी काल में मंत्र के प्रक्षोभ का अभाव होने पर बादलों के न होने पर आकाश स्थल के मध्य में स्थित ह भास्कर के प्रकाश और नाम एक साथ रहते हैं । उसी प्रकार से तीर्थाधिनाथ भगवान परमेश्वर के तीनों जगत् और तीनों कालवर्ती स्थावर और जंगम रूप द्रव्य गुण पर्यायात्मक ज्ञेय पदार्थों में सकल विमल केवलज्ञान और केवल दर्शन एक साथ होते हैं, और विशेष यह है कि संसारी जीवों के दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है, ऐसा समझना ।
इसी प्रकार से प्रवचनमार में भी कहा है
"गाथार्थ - ज्ञान' पदार्थों के अंत को प्राप्त हो चुका है और दर्शन लोकालोक में विस्तृत है, सर्व अनिष्ट नष्ट हो गया है पुनः जो इष्ट है वह सब उपलब्ध हो गया है । "
और अन्य भी है-
१. प्रवचनसार गाथा - ६१