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नियममार
शोभा सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः
तेनोच्चनिश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति ।।२७२॥ जुगवं वट्टइ णाणं, केवलगाणिस्स दंसरणं च तहा। दिरणयरपयासतापं, जह वट्टइ तह मुणेयध्वं ॥१६०।।
युगपद् वर्तते ज्ञानं केवलज्ञानिनो दर्शनं च तथा । दिनकरप्रकाशतापौ यथा वर्तेते तथा ज्ञातव्यम् ॥१६०।।
अहन केवली के, ये ज्ञान व दर्शन । दोनों सदा करें ही इकसाथ में वर्तन ।। यि का प्रकाश श्री प्रताप साथ ही जैसे ।
होने सदा प्रभू के ज्ञान दर्श भी वैसे ।।१६।। इह हि केवलज्ञान केवलदर्शनयोर्युगपद्वर्तनं दृष्टान्तमुखेनोक्तम् । अत्र दृष्टान्त
- .. -- - ----- काम पीड़ा को नथा मौभाग्यचिह्न युक्त शोभा को विस्तृत करता है । नियनय से वह देव जिनेश्वर मल और क्लेश को नष्ट करने वाला होता हुआ अतिशयरूप से अपने स्वरूप को ही जानता है ।
भावार्थ-केवलज्ञानी आत्मा व्यवहारनय से समस्त विश्व को जानता है और निश्चयनय में अपने स्वरूप को ही जानता है ।
। गाथा १६० अन्वयार्थ---[ केवलजानिनः ] केवलज्ञानी के [ ज्ञान तथा च दर्शनं ] ज्ञान और दर्शन [ युगपद् ] युगपत् [ वर्तते ] होते हैं, [ यथा ] जैसे [ दिनकर प्रकाशतापौ ] सूर्य के प्रकाश और ताप [ वर्तते ] युगपत् रहते हैं [ तथा ज्ञातव्यं ] वैसे ही जानना चाहिये ।
टीका-यहां पर केवलज्ञान और केवलदर्शन का युगपत् रहना यह कथन दृष्टांतमुग्व से किया है ।