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नियममार
उक्त' च षण्णवतिपाषडिविजयोपार्जितविशालकीतिभिर्महासेनपण्डितवेवं:
( अनुष्टुभ ) "यथाबस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् । तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।। "
विश्वशेोणित्वमेवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव
निरतत्वात् स्वाश्रितो निश्वयः इति वचनात् । सहजज्ञानं तावत् श्रात्मनः सकाशात् संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्या चेति, अतः कारणात् एतदात्मगतवर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपभपि जानातीति ।
परको प्रकाशित कर देता है। उसी प्रकार से आत्मा भो ज्योतिःस्वरूप होने से व्यवहारनय से त्रिलोक और त्रिकालरूप परको तथा स्वयं प्रकाशरूप आत्मा को प्रकाशित करता है ।
छयानवे पाखंड मतों पर विजय प्राप्त करने से उपार्जित की है विशालकीति जिन्होंने ऐसे महामेन पंडित देव ने भी ऐसे ही कहा है
श्लोकार्थ - यथार्थरूप से वस्तु का निर्णय होना सम्यग्ज्ञान है, वह प्रदीप के समान स्व और अर्थ का निश्चय कराने वाला है, तथा प्रमिति - जाननेरूप क्रिया से कथंचित् भिन्न है । "
भिन्न लक्षण आदि से
अब निश्चयनय के पक्ष में भी ( ज्ञान के ) स्वपर प्रकाशकपना है ही है, क्योंकि वह उपराग रहित निरंजन स्वभाव में निरन है । तथा "स्वाश्रितां निश्चयः " निश्चय स्वाश्रित है ऐसा वचन है । उसीको कहते हैं - सहजज्ञान, संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा से आत्मा से भिन्न है क्योंकि भिन्न नाम और लक्षित हो रहा है तथापि वह सहजशान भिन्न लक्षण आदि से परमार्थ से भिन्न नहीं है । इसलिये यह ( सहज ज्ञान ) आत्मा में होने वाले दर्शन, सुख चारित्र आदि को जानता है और कारण परमात्मास्वरूप ऐसी अपनी आत्मा को भी जानता है । ऐसा अर्थ हुआ ।
लक्षित होते हुए भी