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शृद्धोपयोग अधिकार
[ ४३१ अत्र ज्ञानिनः स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्तम् । आत्मगुणघातकघातिकर्मप्रध्वंसनेनासावितसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनाम्यां व्यवहारनयेन जगत्त्रयकालत्रयवतिसचराचरद्रव्यगुणपर्यायान् एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः 'पराश्रितो व्यवहारः' इति वचनात् । शुद्धनिश्चयतः परमेश्वरस्य महादेवाधिदेवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य परद्रव्यप्राहकत्वदर्शकत्वज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषाद: (१) स भगवान त्रिकालनिरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाम्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मापि जानाति पश्यति च । कि कृत्वा ? पाय धर्मोः तावत् सरप्रकाशकत्व प्रदीपवत् । घटादिप्रमितेः प्रकाशो दोपस्तावद्भिन्नोऽपि स्वयं प्रकाशम्बरूपत्वात् स्वं परं च प्रकाशयति; आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च पर ज्योतिःस्वरूपत्वात स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति ।
टोका-ज्ञानी कथंचित् स्वपर प्रकाशक है, गा यहां पर बसा है।
परम भट्टारक भगवान् पन्भेश्वर आत्म गुणों के घातक घातिकर्म के ध्वंस हो जाने से प्राप्त हुए सकल बिमल केवलज्ञान आर कंवलदर्शन के द्वारा व्यवहारनय
से तीनलोकवर्ती और तीनकालवर्ती में चराचर महित द्रव्य गण पर्यायों को एक । ममय में जानते हैं और देखते हैं क्योंकि पराथिताब्यवहार" व्यवहार पराश्रित है। ऐसा वचन है ।
___शुद्धनिश्च यनय में 'परमेश्वर महादेवाधिदेव मर्वन वीतराग के परद्रव्य के ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकच आदि विविध विकल्पमापी सेना की उत्पत्ति के लिये मूल | ऐसे ध्यान का अभाव हो जाने से वे भगवान् तीनों काल में उपाधि रहित, अवधि रहित, नित्य, शुद्ध, सहज ज्ञान और महग दर्शन के द्वारा निज कारण परमात्मा को स्वयं कार्य परमात्मा होते हुए भी जानते और देखते हैं । क्या करके जानते देविते हैं ? ज्ञान का धर्म ही तो स्वपर प्रकाशकपना है प्रदीप के समान | घटादि के जानने रूप क्रिया से प्रकामरूप दीपक भिन्न होते हुए भी स्वयं प्रकाशरूप होने से अपने को और
* यहां संस्कृत टीका में प्रशुद्धि मालम होती है, इसलिये संस्कृत टीका में तथा उसके अनुवाद में शंका को सूचित करने के लिये प्रश्नवाचक चिह्न दिया है ।
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