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निश्चय-परमावश्यक अधिकार सर्वज्ञ प्रोक्त परमागम सत्र में जो । घण प्रतिक्रमण आदि उन्हें समझकर ।। भो साधु ! मौनयुत नित्य उन्हें करोजे ।
जससे स्वयं हि निज कारज साध लीजे ।। १५५।। इह हि साक्षादन्तर्मुखस्य परमजिनयोगिनः शिक्षणमिदमुक्तम् । श्री महन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तपदार्थगर्भीकृतचतुरसन्दर्भ द्रव्यश्रुते शुद्धनिश्चयनयात्मकपरमात्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणप्रभृतिसत्क्रियां बुद्ध्वा केवलं स्वकार्यपरः परमजिनयोगीश्वरः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य निखिलसंगव्यासंगं मुक्त्वा चैकाकोभूय मौनव्रतेन साध समस्तपशुजनैः निद्यमानोऽप्यभिन्नः सन् निजकार्य निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति ।
-- - - - - - - - मौनव्रतेन ] योगी मौनबनपूर्वक [निजकार्य नित्यं] निजकार्य को नित्य ही [साधयेत् सिद्ध करे।
टीका--माक्षात् अंतर्मुख हुए परिणमित योगी का यहां पर यह शिक्षा कही है।
श्रीमान् अहंत देव के मुखकमल से निकले हुए समस्त पदार्थ जिसमें गभित हैं ऐसे चतुरवचनों से संदर्भित द्रव्यश्रुत में (कही गई) शुद्धनिश्चयनयात्मक परमात्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमण आदि सक्रिया को जानकर केवल स्वकार्य में तत्पर ऐसे परमजिनयोगीश्वर प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसी समस्त वचन रचना को छोड़कर और सर्वसंग के व्यासंग को भी छोड़कर, एकाकी होकर मौनत्रत से सहित समस्त पशु-अज्ञानीजनों के द्वारा निदा किये जाने पर भी 'अभिन्न (अक्षोभित ) होना हा निर्वाण मुन्दरी के संभाग सौग्य का मूल ऐसे निजकार्य को सदैव ही साधित करे ।
[ अब टीकाकार मुनिराज आत्मतत्त्व को साधना के उपाय को बतलाते हुए दो प्रलोक कहते हैं-]
१. छिन्न-भिन्न-अपने स्वरूप से च्युत नहीं होना ।
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