________________
नियमसार ...
दाद्वा । जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः कालकरणोपवेशोपशमप्रायोग्यसाभेवात्, पञ्चधा । ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति ।
(शिखरिगी) विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकरः तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम । असौ लब्धि ना विमलजिनमार्गे हि विदिता
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम् ॥२६७॥ लणं रिणहि एक्को, तस्स फलं प्रणुहवेइ सुजणते । तह णारणी सारगरिणाह, भुजेइ चइत्त परतत्ति ॥१५७॥
तीव्रतर, तीब्र, मंद और मंदनररूप उदय के भेदों से भी अनेक प्रकार के हैं । जीवों के मुखादि की प्राप्ति हेतू लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्य इन भेदों में पांच प्रकार की है । इसलिय परमार्थ जाताओं को स्व और पर के समय-मम्प्रदायों में विवाद नहीं करना चाहिए ।
भावार्थ-तत्त्वज्ञानी जन जब जीवों के अनेक भेद प्रभेद कर्मों के अनेक प्रकार तथा काललब्धि, उपशमलब्धि, उपदेशलब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ऐसी लब्धियों के स्वरूप को समझ लेते हैं तब वे स्वसम्प्रदाय और परसंप्रदाय के विषयों में विसंबाद न करके परमवीतरागी बन जाते हैं क्योंकि सभी जीव कर्माश्रिन हैं पुनः उनके विषय में विसंवाद करना ठीक नहीं है ।
[ टीकाकार मुनिराज बचन विकल्पों से हटाते हुए श्लोक कहते हैं-]
(२६७) श्लोकार्थ-जीवों के संसार को करने वाले ऐसे बहुत प्रकार के भेद हैं तथा सदा जन्म के उत्पन्न करने वाले ऐसे कर्म भी अनेक प्रकार के हैं, यह लब्धि भी विमल जिनदेव के शासन में अनेक प्रकार की प्रसिद्ध है इसलिए स्वसमय और परसमयों के साथ वचन विवाद नहीं करना चाहिए ।