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निश्चय -परमावश्यक अधिकार
[ ४१५ पडिकमणपहुदिकिरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारितं । तेण दु विरागचरिए, समरणो अभुट्टिदो होदि ।।१५२॥
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम् । तेन तु विरागचरिते श्रमणोन्युस्थितो भवति ।।१५२।।
जो माधु ये प्रनित्र.नादि सभी किया । या उन्हें मनात हो निश्चय चरित्र ।। वे बन गगमय चारित में उम गे ।
आम्द भी नियम में फिर हो सकंग ।।१२।।
परमवीतरागचारिस्थितस्य परमतपोधनस्य स्वरूपमत्रोक्तम । यो हि विमुक्तं हिकव्यापारः साक्षादपुनर्भवकांक्षी महामुमुक्षुः परित्यक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वाग्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्कियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमबोतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति ।
संगारी आत्मा को शुद्ध करने का पुरुषार्थ किया जाता है उम मम एवं में यह विकल्प होता ही है अनन्तर निर्विकल्प अवधारूप ध्यान में विकल्प छट जाता है । हम अपेक्षा म कबुद्धि कहा है।
गाथा १५२ ___ अन्वयार्थ-[ निश्चयस्य चारित्रं प्रतिक्रमण प्रभृति क्रियां ] निश्चयनय के चारित्रम्प प्रतित्रामण आदि क्रिया को [कुर्वन् ] करना हुआ [श्रमणः] श्रमण [तेन तु] उसी में [ विराग चरिते ] बीतराग चारित्र में [ अभ्युत्थितः भवति ] आरूढ़ हो जाता है।
टोका--परमवीन राग चारित्र में स्थित हुये परमत पोधन के बम्प को यहां पर कहा है।
जो ऐहिक व्यापार से रहित हुये साक्षात् अपुनर्भव के इन्छक महामुमुक्षु मकल इंद्रियों के व्यापार को छोड़ देने से निश्चय प्रतिक्रमण आदि सक्रिया को करते रहते हैं, उस कारण से वे तपोधन अपने स्वरूप में विश्रांति लक्षण ऐसे परमवीतराग चारित्र में स्थित होते हैं ।