________________
४१८ ]
नियमसार तथा चोक्तम्
"परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खरणा य धम्मकहा ।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होदि सज्झाउ ॥" जदि सक्कदि कादुजे, पडिकमरणादि करेज्ज झारणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायन्वं ॥१५४॥ यदि शक्यते कुतुम अहो प्रतिक्रमणादिकं करोषि ध्यानमयम् । शक्तिविहीनो यावद्यदि श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ॥१५४॥
जो शक्य ह. यदि तुम्हें सब ध्यान का । आवश्यकी प्रनिक्रमादि बिया कगंजे ।। शनी बिहीन जब तक यदि आप तब तक । श्रद्धान ही इन क्रिपायों में रखीजे ।।१५।।
इसीप्रकार अन्यत्र भी कहा है
गाथार्थ-'परिवर्तन-पढ़ हुये का दुहराना, वाचना-शास्त्र व्याख्यान, पृच्छना-पूछना अनुप्रेक्षा-बार-बार चितवन करना और धर्मकथा-त्रेसठशलाका पुरुषों के चरित्र को पढ़ना या उपदेश करना, स्तुति और मंगल सहित यह पांच प्रकार का स्वाध्याय होता है ।
गाथा १५४ अन्वयार्थ-[यदि कतुं शक्यते] यदि करना शक्य हो सके तो [अहो] अहो साधु ! [ध्यानमयं] ध्यानमय [ प्रतिकमणादिकं ] प्रतिक्रमण आदि [करोषि] करो [यदि शक्तिविहीनः] यदि शक्ति हीन हो तो [यावत् श्रद्धानं च एव] तब तक श्रद्धान को ही [कर्तव्यं] करना चाहिए ।
६. मूलाचार के पंचाचार अधिकार में गाथा २१६ । २. 'कुर्यात्' पाठ संभावित है।