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नियमसार
( मंदाक्रांता ) आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टदृशीलमोहो यः संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्तः । मूले शीळे मविरहिये सोऽयमाचार राशि: तं वंदेहं समरससुधासिन्धु राकाशशांकम् ॥१२६२॥ वयणमयं पडिकमरणं, वयरणमयं पच्चखारण नियमं च । श्रालोयरण वयरणमयं तं सव्वं जारण 'सज्झायं ।। १५३ ।।
वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च । आलोचनं वचनमयं तत्सवं जानीहि स्वाध्यायम् ।। १५३ ।।
बाचामयी प्रतिक्रमण वचमय नियम जो । वाणी स्वरूप ग्राम प्रत्याख्यान भी हैं ।। आलोचना वचनरूप इसी तरह जो । स्वाध्यायरूप तुम उन सबको समझ लो ।। १५३ ।।
[ अब टीकाकार मुनिराज कलश काव्य कहते हैं -- ]
( २६२ ) श्लोकार्थ - जिसके दर्शन मोह और चारित्र मोह नष्ट हो चुके हैं, ऐसा जो अतुलमहिमाशाली आत्मा संसार में उत्पन्न होने वाले सुख के कारणभून कर्म को छोड़कर मुक्ति के लिये मूल ऐसे मल से रहित चारित्र में स्थित होता है, सो यह आत्मा आचार की राशि स्वरूप - चारित्र का समूह ही है । समरसरूपी सुधा के सागर को वृद्धिंगत करने के लिये पूर्णिमा के चन्द्रमास्वरूप ऐसे उस आत्मा को मैं वन्दन करता हूं |
गाथा १५३
अन्वयार्थ -- [ वचनमयं प्रतिक्रमणं ] वचनमय प्रतिक्रमण [ वचनमयं प्रत्याख्यानं ] वचनमय प्रत्याख्यान [ नियमः च ] वचनमय नियम तथा [ वचनमयं आलोचनं ] वचनमय आलोचना [ तत्सर्व ] उन सबको [ स्वाध्यायं जानीहि ] तू
स्वाध्याय जान ।
१. सभा (क) पाठा० ।