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नियममार
तथा हि
( मंदाक्रांता) मुक्त्वा जल्पं भवभयफर बाह्यमाभ्यन्तर च स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम् । ज्ञानज्योतिःप्रकटितनिजाभ्यन्तरंगान्तरात्मा
क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श ॥२५६।। जो धम्मसुक्कझाम्हि परिणवो सोवि अन्तरंगप्पा । झाणविहीणो समणो, बहिरप्पा इदि विजाणीहि ॥१५१॥
यो धHशुक्लध्यानयोः परिणत: सोप्यन्तरंगात्मा । ध्यानविहीनः श्रमणो बहिरात्मेति विजानीहि ॥१५१।।
जो धर्म शुक्ल पर ध्यानमयी हुए हैं। वे साधू ही नियम से बस अन्तरात्मा ।। जो ध्यान हीन मुनि वे बहिरातमा हैं । क्योंकि न शुद्ध नहि भी शुभध्यान उनके ।। १५१ ।।
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___अब [ टीकाकार मुनिराज अन्तस्तत्त्व को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं- ]
(२५६) श्लोकार्थ-भवभयकारी ऐसे बाह्य और आभ्यन्तर जल्प को छोड़ कर समरसमयी एक चैतन्य चमत्कार का ही नित्य स्मरण करके, जिसने ज्ञान ज्योति से अपने अभ्यन्तर स्वरूप को प्रगट किया है ऐसा अन्तरात्मा मोह के क्षीण-समाप्त हो जाने पर कोई एक अद्भुत परमतत्व को अन्तरङ्ग में देख लेता है ।
गाथा १५१ अन्वयार्थ-[ यः ] जो [धर्मशुक्लध्यानयोः] धर्मध्यान और शुक्लध्यान से [परिणतः] परिणत है [ सः अपि ] वह भी [ अंतरंगात्मा ] अन्तरात्मा है, और [ध्यानविहीनः श्रमणः] ध्यान से रहित श्रमग [ बहिरात्मा ] बहिरात्मा है [ इति विजानीहि ] ऐसा तुम समझो ।