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निश्चय परमावण्या अधिकार
अत्रानबरतस्ववशस्ग निधनाद अस्ल म् । यः खलु यथाविधिपरमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्ववैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति किन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ मुखस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्म्यध्यानप्रधानपर मावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरगनिरतपरमजिनयोगीश्वरा वदन्ति । किं च यस्त्रिाप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एव साक्षान्मोक्षकारणत्वानिवृतिमार्ग इति निरुक्तियुत्पत्तिरिति ।
तथा चोक्त श्रीमदमृत चन्द्रसूरिभिः
विनाशनयोगः ] क्रम का विनाश करने वाला योग [नि तिमार्गः] मोक्ष का मार्ग द्र [इति प्ररूपितः] गंमा कहा गया है ।
टोका-गर्दव अपन बगहये-अपने में स्थित हा मे मनि के निश्चय आवश्यक क्रिया होती है या यहां कहा गया है।
जो निश्चितरूप से विधि के अनुसार परम जिनभाग के आचरण में कान हैं सदैव अंतर्मुख परिणत होने से अन्य के वश में नहीं होते हैं किन्तु साक्षात् अपने वश में ही रहते हैं अर्थात् अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं यहां यह अभिप्राय है। उन व्यवहारिक क्रियाओं के प्रपंच से पराङमाव हुए साधु के निज आत्मा के आश्रिन निश्चय धर्मध्यान जिसमें प्रधान है गो परमआवश्यक क्रिया होती है ऐसा निरन्तर परम तपश्चरण में लीन हुए परम जिन योगीश्वर कहते हैं क्योंकि जो त्रिगुप्ति में गुप्न परम समाधि लक्षण वाला परमयोग है वह सकल कर्म के विनाश में कारण होने से निर्वृत्ति-मुक्ति में कारण है और वही साक्षात् मोक्ष का कारण होने से निर्वत्ति-मुक्ति का मार्ग है। इमप्रकार से यहां आवश्यक शब्द की निरुक्ति अर्थात् व्युत्पनि को गई है।
भावार्थ-यह निश्चय आवश्यक क्रिया वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन हुए ऐसे महामुनि के ही होती है वे ही परवस्तु की आधीनता को छोड़कर अपने स्वरूप के आधीन रहत हैं अन्य नहीं ।
उसीप्रकार श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है