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नियममार
शुद्धनिश्चयावश्यकप्राप्त्युपायस्वरूपाख्यानमेतत् । इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलवानश्रवणपराङ मुख हे शिष्य शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं संसारव्रततिमूललवित्रं यदीच्छसि, समस्तविकल्पजालविनिमुक्तनिरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखप्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य बाह्यषडावश्यककियाभिः किं जातम् अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः । अतः परमावश्यकेन निष्क्रियेण अपुनर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्ण भवतीति । तथा चोक्त श्रीयोगीन्द्रदेवैः
मालिनी ) 'यदि चलति कथंचिन्मानसं स्वस्वरूपाद् भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसंगः ।
टीका-पद्धनिश्चय आयमका की रितु के उप यह कथन है।
बाह्य पट् आवश्यक प्रपंच रूपी नही की कल-कल ध्वनि के सुनने से पराङमुख हे शिष्य ! यदि तुम संसाररूपी वेल के मल को काटने में कुठार सदश, ऐसी शुद्धनिश्चय धर्मध्यान और शुअलध्यानरुप म्यागाश्रित आवश्यक क्रिया को चाहते हो, तो सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजसुख ये चतुष्टय प्रमुख हैं जिसमें ऐसे समस्त विकल्प जालों से रहित निरंजन स्व.प अपने परमात्म भावों में सतत निश्चल स्थिर भाव करो इस हेतु से निश्चय सामायिक गुण के हो जाने पर मुमुक्षु जीव को [मात्र] बाह्य षट् आवश्यक क्रियाओं से क्या होगा ? अर्थात् अनुपादेय फल ही होगा उपादेयभूत परमात्म तत्त्व नहीं प्राप्त होगा वह अर्थ हुआ। इसलिए मुक्तिरूपी सुन्दरी के संभोग और हास्य को प्राप्त कराने में कदाल ऐसे निष्क्रिय-निश्चय परम आवश्यक के द्वारा जीव का सामायिक चारित्र गंपूर्ण होता है ।
इसीप्रकार स श्री योगीन्द्रदेव ने भी कहा है
"श्लोकार्थ-'यदि किसी प्रकार से तुम्हारा मन अपने स्वरूप से चलित होता है और बाहर घूमता है तो तुम्हें मभी दोषों का प्रसंग होगा। इसलिए तुम हमेशा
१. अमृताशोति, श्लोक ६४ ।