________________
४०२ ]
नियमसार
( मालिनी ) जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोक: स्वरसविसरपूरक्षालितांहाः समंतात् । सहज समरसेना पूर्णपुण्यः पुराणः स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः ॥ २५२॥ ( अनुष्टुभ् )
सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः ।
न कामपि भिदां क्वापि तां विद्यो हा जडा त्रयम् ।। २५३ ||
"हे भगवन् ! आपने' आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिये परम दुश्चर ऐसे बाह्य तपश्चरण को किया था " । इसलिये यहां एकांत नहीं समझना, तत्वज्ञान शून्य तपश्चरण ही मात्र ऐसा है जो मुक्ति को प्राप्त कराने में असमर्थ है। फिर भी यह निर्दोष तपश्चरण मात्र द्रव्यलिंगी मुनि को नवग्रैवेयक तक भी पहुंचा देता है । तथा इससे लौकिक अभ्युदय फल भी मिलते हैं । अतः यहां सर्वथा तपश्चरण का निषेध नहीं है प्रत्युत गुरु भक्ति से गुरुओं के चरणों उपासना का ही महत्त्व स्पष्ट है ।
की
( २५२ ) श्लोकार्थ - सहज तेज की हो रहा है, जो कि सब ओर से निजरस के सहज समरस के द्वारा परिपूर्ण भरे हुये होने से स्ववश हुए योगी के मन में नित्य ही विराजमान है और शुद्ध सिद्ध है ।
राशि में डूबा हुआ लोकजीव जयशील विस्तार के पूर से पाप को धो चुका है, पुण्य - पवित्र है, पुराण- सनातन है,
( २५३ ) श्लोकार्थ - सर्वज्ञवीतराग में और स्वात्माधीन इन योगियों में कभी कुछ भी भेद नहीं है, किंतु अहो ! खेद की बात है कि हम जड़ बुद्धि उनमें भेद मानते हैं ।
भावार्थ - - शुद्ध निश्चयनय से प्रत्येक संसारी आत्मा और परमात्मा सिद्धों में कोई अंतर नहीं है, यह अंतर मात्र व्यवहारनय से ही है। किंतु यहां पर तो स्ववश
१ "बाह्य तपः परमदुश्च रमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवृ हणार्थम् ।"
[ स्वयंभूस्तोत्र ]