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तथा हि
निश्चय परमावश्यक अधिकार
( अनुष्टुभ् )
“जघन्यमध्यमोत्कृष्ट भेदादविरतः सुदृक् । प्रथमः क्षीणमोहोऽन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः ।। "
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( मंदाक्रांता )
योगी नित्यं सहपरमावश्यक कर्मप्रयुक्तः संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती ।
तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठः । स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्वनिष्ठः ।। २५८ ।।
" श्लोकार्थ -- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अंतरात्मा के तीन भेद । उसमें से अविरत सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम - जघन्य अन्तरात्मा हैं, क्षीणमोह जीव अिन्त्य - उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं और इन दोनों के मध्य में रहने वाले मध्यम अन्तरात्मा हैं ।"
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विशेषार्थी कुंदकुंद देव अन्यत्र ग्रंथ में कहते हैं कि बहिगत्मा और विन्तरात्मा परसमय हैं और परमात्मा को स्वसमय कहा है। इनके भेदों को तुम गुणस्थान में समझो । मिश्र गुणस्थान पर्यंत बहिरात्मा हैं, चतुर्थं गुणवर्ती जघन्य अंतरात्मा है। पंचमगुणस्थान से लेकर ग्यारहवे गुणस्थान तक तरतमता से मध्यम अंतरात्मा हैं, क्षीणकषाय वाले बारहवे गुणस्थानवर्ती उत्तम अंतर आत्मा हैं और तेरहवं चौदहवें गुणस्वानवर्ती जिन तथा सिद्ध भगवान् परमात्मा हैं। यहां मार्ग प्रकाश में जो अन्य समय है जिसका अर्थ परसमय है तथा स्वसमय से परमात्मा को ग्रहण किया है ऐसा समझना ।
उसीप्रकार से - [ टीकाकार मुनिराज अध्यात्म भाषा से बहिरात्मा और उतरात्मा के लक्षण को कहते हैं- |
( २५८ ) श्लोकार्थ - - जो योगी नित्य ही सहज परमावश्यक क्रिया का योग करता हुआ, संसार में उत्पन्न हुये प्रबल सुख-दुःखरूपी बनी के दूरवर्ती होता
१. ररणसार गाथा १२८, १२६ ।