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निश्चय परमावश्यक अधिकार
( मंदाक्रांता )
श्रात्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चेकमेकं फर्यादुच्चैरघकुत्रं ि
सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्ण पुण्यः पुराणः वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति ।। २५६ ॥ ( अनुष्टुभ् )
स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम् । इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्तिशर्मणः ॥ २५७ ॥
श्रावासएण जुत्तो, समरणो सो होदि अंतरंगप्पा | श्रावासय परिहोणो, समरणो सो होदि बहिरप्पा ॥१४६॥
आवश्यकेन युक्तः श्रमणः स भवत्यंतरंगात्मा | आवश्यकपरिहीणः श्रमणः स भवति बहिरात्मा ॥ १४६ ॥
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( २५६ ) श्लोकार्थ - आत्मा अवश्य ही गावकुल की नायक और निर्वाण के मूलभूत ऐसी केवल एक सहज परमावश्यक क्रिया को ही अतिशयरूप से करे । यही स्वरस - अपने अनुभव के विस्तार से परिपूर्ण भरित पुण्यस्वरूप और पुराण सो वह आत्मा वचनों के अगोचर कोई एक अद्भुत सहज और शाश्वत सुख को कर लेगा ।
( २५७ ) श्लोकार्थ - - स्ववश मुनीन्द्र का वह उत्तम स्वात्म चिंतन ही श्यक कर्म है जो कि मुक्तिसुख का मूल है ।
भावार्थ -- शुद्धोपयोगी मुनि के जो अपनी आत्मा के स्वरूप का ध्यान होता 'आवश्यक क्रिया है तथा मुक्ति का मूल कारण कहा गया है ।
गाथा १४६
अन्वयार्थ -- [ श्रावश्यकेन युक्तः ] आवश्यक से सहित [ श्रमणः ] श्रमण है [ वह [ अन्तरंगात्मा ] अंतर आत्मा है और जो [आवश्यकपरिहीणः ] आवश्यक