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निश्चय-परमावश्यक अधिकार
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( अनुष्टुभ् ) एक एव सदा घन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनिः ।
स्ववशः सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधीः ।।२५४॥ प्रावासं जइ इच्छसि, अप्पसहावेसु करयदि थिरभाव । तेण दु सामण्णगुणं, संपुष्णं होवि जीवस्स ॥१४७॥
आवश्यकं यदीच्छसि आत्मस्वभावेषु करोषि स्थिरभाषम् । तेन तु सामायिकगुणं सम्पूर्ण भवति जीवस्य ।।१४७।।
भो साधु ! आप आवश्यक चाहते यदि । आत्म स्वभाव उसमें स्थिर भाव धारो ।। उससे हि जीव गुण तो, परिपूर्ण होता। सावध हीन सामायिक नाम का जो ॥१४७।।
..- पोगी बारहवें गुणस्थान में स्थित हैं अन्तर्मुहूर्त में ही शेष तीन घातिया को भी समाप्त करके सर्वज्ञ वीतराग होने वाले हैं। उसके पहले वीतरागी तो हो ही चुके हैं निग्रंथ । संज्ञा भी वहीं पर सार्थक है इसलिये सर्वज्ञ में और इनमें भेद मानना अज्ञान ही है । । (२५४) श्लोकार्थ-इस जन्म-संसार में स्ववश महामुनि ही एक सदा धन्य हैं जो कि अन्य में उपयोग से रहित ऐसे अनन्यबुद्धि वाले होते हुए सभी कर्मों से बाहर स्थित हैं।
भावार्थ-वास्तव में वे ही इस संसार में धन्यवाद के पात्र हैं कि जो श्रीतराग निर्विकल्प ध्यान में अपने उपयोग को स्थिर कर चके हैं। उनसे सभी कर्म अपने आप पृथक् हो जाते हैं। उनका उपयोग अन्य तरफ न होने से वे अनन्यधी कहलाते हैं।
गाथा १४७ अन्वयार्थ-[यदि आवश्यकं इच्छसि] यदि तुम आवश्यक को चाहते हो तो [आत्मस्वभावेषु स्थिरभावं करोषि ] आत्मा के स्वभावों में स्थिर भाव करो [तेन तु] । उसीसे [ जोवस्य ] जीव का [ सामायिकगुणं संपूर्ण भवति ] सामायिक गुण संपूर्ण
होता है।
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