________________
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ ३८६ वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन । तस्मात्सस्य तु कर्मावश्यक लक्षणं न भवेत् ॥१४३।।
जो भी श्रमण अशुभ भावस्वरूप वर्ते । वो अन्य के वश हुआ निश्चित समझिये ।। इस हेतु से उस समय उस साधु के तो।
होता स्वरूप नहिं आवश्यक क्रिया का ।। १४३।। इह हि भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्यावशत्वं न समस्तोत्युक्तम् । अप्रशस्तरागाधशुभभावेन यः श्रमणाभासो दलिगी वर्तते स्वस्वरूपादन्येषां परद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधHध्यानलक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थ द्रयलिंगं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन् परमतपश्चरमादिकमप्युदास्य जिनेन्द्र मंदिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति मनश्वकारेति ।
इसलिये [ तस्य तु अावश्यकलक्षणं कर्म ] उस साधु के आवश्यक लक्षण बाला कर्म [न भवेत् ] नहीं होता है ।
टीका-भेदोपचार रत्नत्रय से परिणत हये जीव के अवशपना नहीं होता है ऐसा यहां कथन है । है जो श्रमणाभास द्रव्यलिंगी साधु है वह अपने स्वरूप से अतिरिक्त अन्य परद्रव्यों के वश होकर अप्रशस्त राग आदि अशुभभाव से वर्तन करता है इसलिये जघन्य ननत्रय से परिणत हुए उस जीव के अपनी आत्मा के आथित निश्चय धर्मध्यान लक्षण ऐसा परम आवश्यक कर्म नहीं होता है क्योंकि वह भोजन के लिये द्रव्यलिंग को ग्रहण करके अस्वात्म कार्य से विमुख होता हुआ परम तपश्चरणादि से भी उदासीन होकर जिनेन्द्र देव के मंदिर अथवा उस संबंधी क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादि ये सभी हमारे हैं ऐसा मन में समझ लेता है। व भावार्थ-जो द्रलिंगी साधु हैं वे जिनमंदिर, वसतिका आदि पर वस्तुओं को अपनी मानकर व्यवहार आवश्यक क्रियाओं में भी प्रमादी हो जाते हैं पुनः निश्चय