________________
३८७ ]
निगमसार
परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्तिः व्युत्पत्तिश्चेति ।
{ मंदाक्रांता) योगी कश्चित्स्वहितनिरतः शुद्धजीवास्तिकाया अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्तिः । तस्मादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुजस्य नित्यं
स्फूर्जज्ज्योतिःस्फुटितसहजावस्थयामूर्तता स्यात् ।।२३६।। वट्टदि जो सो समरणो, अण्णवसो होदि असहभावरण ।
तम्हा तस्स दु कम्म, प्रावस्सयलक्खणं रा हवे ॥१४३।। - ---- - -----.--.----... - - . .. --..---- अभाव मे अवयव का अभाव हो जाता है। जो परद्रव्यों के वश नहीं है वे अवशसाधु निरवयय-अशरीगे हो जाते हैं. इसप्रकार से यहां पर निक्ति-व्युत्पत्ति की
अब टीकाकार मुनिराज अवश योगी के माहात्म्य को बतलाते हये कहते हैं.-]
(२३६) श्लोकार्थ-कोई स्वहित में तत्पर हये योगी जो कि शुद्ध जीवास्तिकाय से अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं है और इसप्रकार से उनकी जो सम्यक स्थिति है सो निरुक्ति है इस हेतु से जिसने पापरूपी अंधकार के पुज को नष्ट कर दिया है वे योगी नित्य ही स्फुरायमान ज्योतिरूप प्रगट हुई सहज अवस्था में अमूर्तिक हो जाते है । ।
भावार्थ-अपने स्वाभाविक आत्मस्वरूप में स्थित हये योगी अन्य के आश्रय से रहित होकर देहमयी मूर्ति रहित ऐसे अमूर्तिक अशरीरी सिद्ध हो जाते हैं ।
गाथा १४३ अन्वयार्थ-[ यः ] जो [ अशुभभावेन ] अशुभभाव से [ वर्तते ] प्रवृत्ति करता है [सः श्रमणः] वह साधु [अन्यषशः भवति] अन्य के वश होता है [तस्मात्]