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निश्चय परमावश्यक अधिकार ( शिखरिणी)
तपस्या लोके स्मिनिखिलसुधियां प्राणदयिता नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम् । परिप्राप्यतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं सुखं रेमे कश्चित कलिहतोऽसौ जडमतिः ।। २४२ ।।
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हैं। अनेक परिग्रह समूह को जिन्होंने त्याग कर दिया है और जो पापरूपी वन के लिये अग्नि के समान हैं ऐसे वे मुनिराज इस समय पृथ्वी तल पर तथा स्वर्ग में देवों से पूजे जाते हैं ।
भावार्थ- - आज इन दुःपसकाल में भी निर्दोष मुनि विचरण करते हैं जो कि सच्चे धर्म की रक्षा करने वाले एक मणि विशेष के सदृश हैं । जैसे कोई उत्तम जानि का हीरा गरुत्मणि आदि जीवों को भूतपिशाचों से या अन्य आपत्तियों से रक्षित करता है उसीप्रकार पंचमकाल के अंत तक जिनमासन की परम्परा को अविच्छिन्न चलाने वाले ये साधु आज भी विद्यमान हैं जो कि मनुष्यों से तो क्या देवों में भी पूजित माने गये हैं ।
( २४२ ) श्लोकार्थ - इस लोक में तपस्या समस्त बुद्धिमानों को प्राणों में भी प्यारी है वह सौ इंद्रों से भी सतत् नमस्कार करने योग्य है । जो कोई इस तपस्या को प्राप्त करके कामांधकार से सहित ऐसे सांसारिक सुख में रमते हैं, बड़े खेद की बात है कि वे जड़मति कलिकाल में मारे गये हैं ।
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भावार्थ - यह जैनेन्द्र मार्ग की तपश्चर्या तीनों लोकों में सभी इंद्र नरेन्द्रों से पूज्य है, सर्वोत्तम है जो इसको प्राप्त करके - जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करके पुनः विषय सुख के लोलुपी होते हैं वे बेचारे इस कलिकाल के प्रभाव से ही नष्ट हो रहे हैं ऐसा मझना क्योंकि यदि कोई अद्भुत चितामणि रत्न को प्राप्त करके भी उसे कौवे को उड़ाने में फेंक दे पुन: सुख की आशा करे तो वह जड़ बुद्धि ही कहलावेगा ।
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