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निश्चय-परमावश्यक अधिकार
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निरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादिक्लेशपरंपरया शुभोपयोगफलात्मभिः प्रशस्तरागांजारः पच्यमानः समासम्मभव्यतागुणोदये सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिमानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति ।
-- -...- - विशेषार्थ--टीकाकार कहते हैं कि यहां पर अशुद्ध अंतरात्मा का कथन है । वास्तव में अंतरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से तीन भेद हैं। 'अविरत सम्यग्दष्टि जघन्य अंतरात्मा हैं, देशवती से लेकर उपशांतकषाय नामक ग्यान्हवं गुणअयान तक मध्यम अंतरात्मा हैं एवं क्षीणमोह नामक बारहवे गुणस्थानवती उत्तम
तरात्मा' हैं ।" यहां मोझकर्म से सर्वथा रहित ये उत्तम अंतरात्मा ही गद्ध अंतरात्मा में शेष अशुद्ध अन्तरात्मा हैं। ये साधु पूर्व में नरण करण में प्रधान रहते हैं अर्थात संचमहात्रत, पंचसमिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार के चार चरण हैं। पंचपरमेष्ठी की स्तुति, छह आवश्यक क्रिया, असही और नि सही में तेरह क्रियाय करण कहलाती हैं।
यहां पर संयमी की अहोगत्र संबंधी ग्यारह क्रियाओं को कहा है। उसका पष्टीकरण ऐसा है कि साधु के अहोरात्र में देव सक और रात्रिक ऐसे दो प्रतिक्रमण, सोनों संध्या कालों में तीन बार देववंदना, पौर्वाण्हिक, अपराहिक, पूर्वरात्रिक, अपरत्रिक ऐसे चार स्वाध्याय तथा रात्रियोग प्रतिष्ठापन और निष्ठापन ये 12 क्रियायें की जाती हैं जो कि अवश्य करणीय हैं । इन ग्यारह क्रिया सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग
जाते हैं । यथा-दो प्रतिक्रमण के आठ, तीन देववंदना के छह, चार स्वाध्याय के घरह, तथा रात्रियोग प्रतिष्ठापन-निष्ठापन संबंधी दो ऐसे ८+६+ १२२-२८ होते । यहां टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि जो माधु आचारांग के आधार से आचार वों द्वारा कथित क्रियाओं में परिपूर्णतया निष्णात होते हैं वे निश्चय आवश्यक क्रिया करने में समर्थ हो सकते हैं अन्य नहीं । तथा जब तक वे निश्चयधर्मध्यान या शुक्लमान तक नहीं पहुंचे हैं तब तक वे अन्य वश ही हैं जब उस आवश्यक को प्राप्त हये
१. मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिया अंतरप्प जहण्णा ।
मत्तोत्ति मज्झिमंतर खीणुत्तर परमजिण सिद्धा ।।१२६।। कुन्दकुन्ददेव ।