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नियममार
तथा चोक्तम्--
( अनुष्टुभ् ) "आत्मकार्य परित्या माद विशमा ।। . यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ॥"
तथा हि
( अनुष्टुभ् ) यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः ।
यथेधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्द्धनम् ॥२४६।। परिचत्ता परभावं, अप्पाणं झादि रिणम्मलसहावं । अप्पवसो सो होदि हु, तस्सदु कम्मं भरणंति आवासं ॥१४६॥
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भव्य जीव द्रलिंगधारी होते हुए उसी भव में या आगे के भव में संस्कार की विशेषता चारित्र को धारण कर भी बन सकते हैं किन्तु जो अभव्य जीव मिथ्यात्व गुणस्थानवी ही रहते हैं फिर भी वे इस द्रव्यचारित्र के प्रसाद से नववेयक तक भी चले जाते हैं।
उसीप्रकार से कहा भी है
श्लोकार्थ-"आत्मकार्य को छोड़कर प्रत्यक्ष और परोक्ष से विरुद्ध ऐसी उस चिता से आत्मा के स्वरूप में लीन हुये यतिबों को क्या प्रयोजन है ?"
(२४६) श्लोकार्थ-जीवों को जब तक चिंता है तभी तक संसार है जैसे ईंधन सहित, स्वाहानाथ-अग्नि की वृद्धि ही होती है ।
भावार्थ-अग्नि में ईंधन के डालते रहने से वह बढ़ती ही है उसीप्रकार से चिता से संसार की वृद्धि ही होती है ।