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परम-भक्ति अधिकार
[ ३८३ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहलीप प्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारख्याबायां तात्रवृत्ती परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः ।। - -- -.. ...... . - ... - - . ... ..-- - - रूप है । पहले इममें व्यवहार भक्ति की मुख्यता रखी है जिसमें पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक उपासक भी रत्नत्रय की भक्ति करने वाले माने गये हैं। पनः निश्चय भक्ति की प्रधानता से निर्वाण भक्ति और योग भक्ति की विशेषता बताई है तथा उम भक्ति का फल परमानन्दमयी निर्वाण सौख्य माना है। इसलिये व्यवहार भक्ति के द्वारा निश्चयरूप अपने आत्म तत्त्व की भक्ति को सिद्ध करके अपनी आत्मा को ही पुज्य भगवान बना लेना चाहिये ।
इस प्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिये सूर्य सदग, पंचेन्द्रियों के प्रसार में वजित गात्र-मात्र परिवहधारी ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारि देव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवनि नामक टीका में परम भक्ति अधिकार नामक दशवां श्रुतम्कंध पूर्ण हुआ।
Sunauics SASSALESE